पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७९९

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उपशम प्रकरण। ७६१ तत्त्व में स्थित होता है और रागदेष भादि विकार उसके मिट जाते हैं। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे वीतर्वविश्रान्तिसमाति- नाम चतुरशीतितमस्सर्ग-॥५४॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजीवीतव की नाई विदितवेद होकर तुम भी रागद्वेष से रहित स्थित हो। जैसे तीस सहस्र वर्ष वीतव वीतशोक और जीवन्मुक्त होकर विचरा है तैसे ही तुम भी विचरो। और भी बोध- वान् राजा और मुनीश्वर हुए हैं, जैसे वे उस पद में प्राप्त हुए राज्यादिक व्यवहार में रहे हैं तेसे ही तुम भी जीपन्मुक्त होकर रहो । हे रामजी! सुख दुःख कर्म पात्मा को स्पर्श नहीं करते, भात्मा सर्वत्र है, तुम किस निमित्त शोक करते हो ? बहुत विदितवेद पृथ्वी में विचरते हैं परन्तु शोक को कदाचित् नहीं प्राप्त होते-जैसे तुम अवशोक नहीं करते हो। हे रामजी ! तुम भव स्वस्थ उदार शम और सर्वत्र हो, अब तुमको फिर जन्म न होगा। जीवन्मुक्त पुरुष जो अपने स्वरूप में स्थित है वह हर्ष- शोक को प्राप्त नहीं होता है। जैसे सिंह वानर और शृगाल मादिक के वश नहीं होता तैसे ही जीवन्मुक्त विकारों से रहित होता है। रामजी ने पूछा, हे भगवन् ! इस प्रसंग में मुझको संदेह हुमा है उसको जैसे शरत्काल में मेघ नष्ट हो जाता है तैसे ही नाश करी हे तत्त्ववेत्ताओं में श्रेष्ठ । जीवन्मुक्त के शरीर में शक्ति क्यों नहीं दृष्टि आती कि पाकाश में उड़ता फिरे और सूक्ष्म रूप से और शरीर में प्रवेश कर जावे इत्यादिक ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! भाकाशगमनादिक जो सिद्धि हैं सो तपादिक कर्मों की शक्ति हैं । जो कुछ जगत विचित्र दिखाई देना भौर फिर गुप्त हो जाना इत्यादिक हैं वे वस्तु द्रव्य, क्रिया के स्वभाव हैं, भात्मवान के नहीं । हे रामजी! कोई द्रव्य, क्रिया और काल को यथा- क्रम साधता है उसको ही शक्ति प्राप्त होती है और बानी साधे अथवा भवानी साधे उसको शक्ति प्राप्त होती है परन्तु वह शक्ति प्रात्मज्ञान का फल नहीं । भात्मवानी को प्रात्मज्ञान की ही सिद्धता होती है, वह मात्मा से ही तृप्त होता है और सिद्धि जो अविद्यारूप हैं उनकी भोर नहीं धावता । जो कुछ जगत् है वह उसने भविद्यारूप जाना है इससे