पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८००

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योगवाशिष्ठ। वह पदायों में नहीं डूबता । जो भवानी हे वह सिद्धता के निमित्तान पदार्थों को साधता है और जो ज्ञानवान है वह इन पदार्थों के वास्ते यत्न नहीं करता । यत्न करने से बानी हो अथवा भवानी हो इन्द्रादिकों के ऐश्वर्य को पाता है । और वहबान की शक्ति नहीं, द्रव्य भादि की शक्ति हे सोपविद्यारूप है। भवानी इनकी भोर धावते हैं बानवान नहीं धावते, क्योंकि वे सबसे प्रतीत हैं। जिसने सब इच्छा का त्याग किया है और मात्मपद में संतोष पाया है वह इनकी इच्छा नहीं करते। इनकी इच्छा भोगों भयवावड़ाई के निमित्त होती हे अथवा मान और जीने पोर सिदि के निमित्त होती है। भवानी को भोगों की सिद्धता की भोर मान की इच्छा नहीं होती, क्योंकि ये सब भनात्म धर्म हैं और वह नित्यतृप्त, परमशान्तरूप, वीतराग, निर्वासनिक पुरुष है और भाकाश की नाई सदा अपने भापमें स्थित हैं । जैसे सुख स्वाभाविक भाता है तैसे ही दुःख भी स्वाभाविक भाता है शरीर के सुख दुःख की अवस्था में वह चलायमान नहीं होता, नित्यतृप्त और भसंग होता है और जीवन मरण की वृत्ति उसको नहीं फुरती सबमें सम रहता है। जैसे समुद्र में नदियाँ प्रवेश करती है और समुद्र अपनी मर्यादा में स्थित रहता है तैसे ही बानवान् को लोभ नहीं प्राप्त होता। हे रामजी ! जो कुछ जानवान को प्राप्त होता है उसे वह मात्मा में अर्चन करता है, उसको करने में कुछ अर्थ नहीं और न करने में कुछ प्रत्यवाय है । उसको किसी कामाश्रय नहीं, सदा अपने स्वरूप में स्थित है और यह मन्त्रसिद्धि कालकर्म से होता है। एक योगक्रिया ऐसी है कि उसके सामने से उड़ने की शक्ति हो पाती है, एक मन्त्रों से शक्ति होती और एक गुटका मुख में रखने से उड़ने इत्यादिक की शक्ति होती है, शक्ति की नीति प्रथम ही हो रहती है। उससे अन्यथा नहीं होती। हेरामजी जेसी शक्ति जिस साधन से नियत हुई है उसको सदाशिव भी भन्यथा नहीं कर सकते, क्योंकि वह स्वाभाविक स्वतः सिद्ध है-जैसे चन्द्रमा में शीतलता और अग्नि में उष्णता है इत्यादिक भादि नीति है उसको कोई दूर नहीं कर सकता और सर्वच जो विष्णु भगवान है वे भी अन्यथा नहीं कर