पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८०५

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उपशम प्रकरण सत्यता है जब चित्त संसार से विरक्त हो और सत्संग और सत्शात्रों का श्रवण और मनन और स्वरूप का अभ्यास करे तव चित्त अचित्त हो जाता है और परमानन्द की प्राप्ति होती है और तभी जीवन्मुक्त होकर विचरता है। जिस प्रकार मैत्री भादिक गुण जीवन्मुक्त में होते हैं सो भी सुनो। हे रामजी ! चित्त में जो संसार की सत्यतारूपी मैल है यही चित्त- भाव है । वह जब भात्मज्ञान से नष्ट हो जाता है तब मैत्री भादिक गुण मान प्राप्त होते हैं। जैसे सूर्य के उदय हुए तम नष्ट जाता है और प्रकाश उदय होता है और जैसे भूने दाने का अंकुर जल जाता है तेसे ही ज्ञान से चित्त का चित्तत्वभाव नष्ट हो जाता है और मैत्री मादिक गुण उदय होते हैं। तब देखनेमात्र चित्त दीखता है ब्रह्मवेत्ता भवानी की नाई यत्न करता भासता है परन्तु भवानी का चिच जन्म का कारण है बानी का चित्त जन्म का कारण नहीं । जैसे कच्चा दाना उगता है, भुना नहीं उगता, तैसे ही भवानी जन्मता है, ज्ञानी नहीं जन्मता । जैसे चन्द्रमा राहु से छूटता तव चित्त में मैत्री, करुणा आदिक गुण उदय होते हैं और जैसे वसन्तऋतु के आये बेलें सब प्रफुल्लित हो जाती हैं तैसे ही चित्तभाव मिटे से मैत्री मादिक गुण स्वाभाविक फुरते हैं। जो विदेहमुक्त होता है उसका चित्त स्वरूप से भी नष्ट हो जाता है और वहाँ गुण कोई नहीं रहता वह अवस्था और कोई नहीं जानता, विदेहमुक्त ही जानता है। उसमें दैतकल्पना कुछ नहीं फुरती और निर्मल पावन पद है । हे रामजी | जीवन्मुक्त का चित्त स्वरूप में अचित्त होकर रहता है भोर विदेहमुक्त में चित्त स्वरूप से नष्ट हो जाता है इस कारण जीव- न्मुक्त में मैत्री भादिक गुण पाये जाते हैं। मात्मा जो निर्मल घोर निष्क- बङ्क है सो चित्त के नष्ट हुए विदेहमुक्त में रहता है, उसमें गुणों की कल्पना कोई नहीं फुरती वह परमपावन निर्मल पद में स्थित होता है औरशान्ति मादिक गुण भी नष्ट हो जाते हैं, क्योंकि चित्त स्वरूप से नष्ट हो जाता है। चित्त के नष्ट हुए चित्त की अवस्था कहाँ रही । तब न कोई गुण रहता है न अवगुण रहता है, न वह गुणों से उत्पन्न हुमा सार कहाता है और न अवगुणों से उत्पन्न हुमा प्रसार कहाता है, न लोलुप