पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/९०

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योगवशिष्ठ।

गरुड़ पर आरूढ़ होकर विष्णुरूपी होता है और पुरुषोत्तम कहाता है और यही चित्तसंवेदन अपने पुरुषार्थ से रुद्ररूप हो अर्द्धाङ्ग में पार्वती, मस्तक में चन्द्रमा और नीलकण्ठ परमशान्तिरूप को धारण करता है इससे जो कुछ सिद्ध होता है सो पुरुषार्थ से ही होता है। हे रामजी! पुरुषार्थ से सुमेरु का चूर्ण किया चाहे तो वह भी कर सकता है। यदि पूर्व दिन में दुष्कृत किया हो और अगले दिन में सुकृत करे तो दुष्कृत दूर हो जाता है। जो अपने हाथ से चरणामृत भी ले नहीं सकता वह यदि पुरुषार्थ करे तो वही पृथ्वी को खण्ड खण्ड करने को समर्थ होता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणे पुरुषार्थोपक्रमोनाम चतुर्थस्सर्गः॥४॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! चित्त जो कुछ वाञ्छा करता है और शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ नहीं करता सो सुख न पावेगा, क्योंकि उसकी उन्मत्त चेष्टा है। पौरुष भी दो प्रकार का है—एक शास्त्र के अनुसार और दूसरा शास्त्रविरुद्ध। जो शास्त्र को त्याग करके अपनी इच्छा के अनुसार विचरता है सो सिद्धता न पावेगा और जो शात्र के अनुसार पुरुषार्थ करेगा वह सिद्धता को प्राप्त होगा, कदाचित् दुःख न पावेगा। अनुभव से स्मरण होता हे और स्मरण से अनुभव होता है, यह दोनों इसही से होते हैं। देव तो कुछ न हुआ। हे रामजी! और देव कोई नहीं, उसका किया ही इसको प्राप्त होता है, परन्तु जो बलिष्ठ होता है उसी के अनुसार विचरता है। जिसके पूर्व के संस्कारवली होते हैं उसी की जय होती है और विद्यमान पुरुषार्थ बली होता है तब उसको जीत लेता है। जैसे एक पुरुष के दो पुत्र हैं तो वह उन दोनों को लड़ाता है पर दोनों में से जो बली होता है उसी की जय होती है, परन्तु दोनों उसी के हैं वैसे ही दोनों कर्म इसके हैं जिसका पूर्व का संस्कार वली होता है उसी की जय होती है। हे रामजी! यह जीव जो सत्संग करता है और सतशास्त्र को भी विचारता है पर फिर भी पक्षी के समान जो संसारवृक्ष की और उड़ता है तो पूर्व का संस्कार बली है उससे स्थिर नहीं हो सकता। ऐसा जानकर पुरुष प्रयत्न का त्याग न करे। पूर्व के संस्कार से अन्यथा नहीं होता, परन्तु पूर्व का संस्कार बली भी हो। और सत्संग करे और सतशास्त्र का