पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/९३

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मुमुक्षु प्रकरण।

आश्रय करो और सत् सग और सत् शास्रारूपी आदर्श के द्वारा अपने गुण और दोष को देख के दोष का त्याग करो और शास्त्र के सिद्धान्तों पर अभ्यास करो। जब दृढ़ अभ्यास करोगे तब शीघ्र ही आनन्दवान् होगे। इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले कि जब इस प्रकार वसिष्ठजी ने कहा तब सायंकाल का समय हुआ तो सब सभा स्नान के निमित्त उठ खड़ी हुई और परस्पर नमस्कार करके अपने अपने घर को गये और सूर्य की किरणों के निकलते ही सब भा फिर स्थिर भये।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षु प्रकरणे पुरुषार्थवर्णनन्नाम
पञ्चमस्सर्गः॥५॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इसका जो पूर्व का किया पुरुषार्थ है उसी का नाम दैव है और दैव कोई नहीं। जब यह सत्संग और सत्शास्त्र का विचार पुरुषार्थ से करे तब पूर्व के संस्कार को जीत लेता है। जिस इष्ट पुरुष के पाने का यह शास्त्र द्वारा यत्न करेगा उसको अवश्यमेव अपने पुरुषार्थ से पावेगा अन्यथा कुछ नहीं होता, न हुआ है और न होगा। पूर्व जो कोई पाप किया होता है उसका जब फल दुःख पाता है तो मूर्ख कहता है कि हा दैव, हा देव, हा कष्ट, हा कष्ट। हे रामजी! इसका जो पूर्व का पुरुषार्थ है उसी का नाम दैव है और दैव कोई नहीं। जो कोई दैव कल्पते हैं सो मूर्ख हैं। जो पूर्व जन्म में सुकृत कर आया है वही सुकृत सुख होके दिखाई देता है और जिसका पूर्व का सुकृत बली होता है उमी की जय होती है। जो पूर्व का दुष्कृत बली होता है और शुभ का पुरुषार्थ करता है और सतसंग और सत्शास्त्र को भी विचारता, सुनता और करता है तो पूर्व के संस्कार को जीत लेता है। जैसे पहिले दिन पाप किया हो और दूसरे दिन बड़ा पुण्य करे तो पूर्व का पाप निवृत हो जाता है वैसे ही जब यहाँ दृढ़ पुरुषार्थ करे तो पूर्व के संस्कार को जीत लेता है। इससे जो कुछ सिद्ध होता है सो पुरुषार्थ से ही सिद्ध होता है। एकत्रभाव से प्रयत्न करने का नाम पुरुषार्थ है जो एकत्रभाव से यत्न करेगा उसको अवश्यमेव प्राप्त होगा और जो पुरुष और देव को जानके अपना पुरुषार्थ त्याग बैठेगा सो दुःख पाकर शान्तिमान् कभी न