पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/९४

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योगवाशिष्ठ।

होगा। हे रामजी! मिथ्या दैव के अर्थ को त्याग के तुम अपने पुरुषार्य को अंगीकार करो। सन्तजनों और सत्शास्त्रों के वचनों और युक्तिसहित यत्न और अभ्यास करके आत्मपद को प्राप्त होने का नाम पुरुषार्थ है। जैसे प्रकाश से पदार्थ का ज्ञान होता है वैसे ही पुरुषार्थ से आत्मपद की प्राप्ति होती है जो पूर्व कर्मानुसार बड़ा पापी होता है तो यहाँ दृढ़ पुरुषार्थ करने से उसको जीत लेता है। जैसे बड़े मेघ को पवन नाश करता है और जैसे वर्ष दिन के पके खेत को बरफ नाश कर देती है वैसे ही पुरुष का पूर्वसंस्कार प्रयत्न नष्ट होता है। हे रामजी! श्रेष्ठ पुरुष वही है जिसने सत्संग और सतशास्त्र द्वारा बुद्धि को तीक्ष्ण करके संसारसमुद्र से तरने का पुरुषार्थ किया है। जिसने सत्मंग और सत्शानदारा बुद्धि तीक्ष्ण नहीं की और पुरुषार्थ को त्याग बैठा है वह पुरुष नीच से नीच गति को पावेगा। जो श्रेष्ठ पुरुष हैं वे अपने पुरुषार्थ से परमानन्द पद को पावेंगे, जिसके पाने से फिर दुःखी न होंगे। जो देखने में दीन होता है वह भी सत्संगति भोर सत्शास्त्र के अनुसार पुरुषार्थ करता है तो उत्तम पदवी को प्राप्त होता दीखता है। हे रामजी! जिस पुरुष ने पुरुष प्रयत्न किया है उसको सब सम्पदा आ प्राप्त होती है और परमानन्द से पूर्ण रहता है। जैसे समुद्र रत्न से पूर्ण है वैसे ही वह भी परमानन्द से पूर्ण होता है। इससे जो श्रेष्ठ पुरुष हैं वे अपने पुरुषार्थ द्वारा संसार के बन्धन से निकल जाते हैं जैसे केसरी सिंह अपने बल से पिंजरे में से निकल जाता है। हे रामजी! यह पुरुष और कुछ न करे तो यह तो अवश्य करे कि अपने वर्णाश्रम के अनुसार विचरे और साथ ही पुरुषार्थ करे। जब सन्त और सतशास्त्र के आश्रय होके उसके अनुसार पुरुषार्थ करेगा तब सब बन्धनों से मुक्त होगा। जिस पुरुष ने अपने पुरुषार्थ का त्याग किया है और किसी और देव को मानके कहता है कि वह मेरा कल्याण करेगा सो जन्ममरण को प्राप्त होकर शान्तिमान् कभी न होगा। हे रामजी! इस जीव को संसाररूपी विसूचिका रोग लगा है। उसको दूर करने का उपाय मैं कहता हूँ। सन्तजनों भोर सत्रशास्त्रों के अर्थ में दृढ़ भावना करके जो कुछ सुना है उसका बारंबार अभ्यास करके और