पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/९९

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मुमुक्षु प्रकरण।

सन्तजनों और सत्शास्त्रों के अनुसार संसारसमुद्र तरने का प्रयत्न करो। तुम्हारे पुरुषार्थ बिना दैव कोई नहीं। जो और दैव होता तो बहुत बेर क्रियावाला भी अपनी क्रिया को त्याग के सो रहता कि दैव आप ही करेगा, पर ऐसे तो कोई नहीं करता। इससे अपने पुरुषार्थ बिना कुछ सिद्ध नहीं होता। जो कुछ इसका किया न होता तो पाप करने वाले नरक न जाते और पुण्य करनेवाले स्वर्ग न जाते परन्तु पाप करने वाले नरक में जाते हैं और पुण्य करनेवाले स्वर्ग में जाते हैं; इससे जो कुछ प्राप्त होता है सो अपने पुरुषार्थ से ही होता है। हे रामजी! जो कोई ऐसा कहे कि कोई दैव करता है तो उसका शिर काटिये जो वह दैव के आश्रय जीता रहे तो जानिये कि कोई दैव है, पर सो तो जीता कोई भी नहीं। इससे देव शब्द को मिथ्या भ्रम जानके सन्तजनों और सत्शास्त्रों के अनुमार अपने पुरुषार्थ से आत्मपद में स्थित हो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे मुमुक्षुप्रकरणे परमपुरुषार्थ
वर्णनन्नामष्टमस्सर्गः॥८॥

इतना सुनकर रामजी ने पूछा, हे भगवन्, सर्वधर्म के वेत्ता! आप कहते हैं कि देव कोई नहीं परन्तु इस लोक में प्रसिद्ध है कि ब्रह्मा भी देव है और देव का किया सब कुछ होता है। वशिष्ठ जी बोले हे रामजी! मैं तुमको इसलिए कहता हूँ कि तुम्हारा भ्रम निवृत्त हो जावे। अपने ही किये हुए शुभ अथवा अशुभकर्म का फल अवश्यमेव भोगना होता है, उसे दैव कहो वा पुरुषार्थ कहो और दैव कोई नहीं। कर्ता, क्रिया, कर्म आदिक में तो देव कोई नहीं और न कोई दैव का स्थान ही है और न रूप ही है तो भोर देव क्या कहिये। हे गमजी! मूर्खों के परचाने के निमित्त देव शब्द कहा है। जैसे आकाश शून्य है वैसे दैव भी शून्य है। फिर रामजी बोले, हे भगवन, सर्वधर्म के वेत्ता! तुम कहते हो कि भौर देव कोई नहीं और आकाश की नाई शुन्य है सो तुम्हारे कहने से भी देव सिद्ध होता है। तुम कहते हो कि इसके पुरुषार्थ का नाम देव है और जगत् में भी देव शब्द प्रसिद्ध है। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मैं इसलिए तुमको कहता हूँ कि जिससे देव शब्द तुम्हारे हृदय से उठ जावे।