पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१११

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योगवासिष्ठ । है, जो अनेक ओरको धावती है, तिसते जब धुक्त होता है, तब चंद्रमाके प्रकाशवत् शीतल हो जाता है, अरु आकाशवत् . विस्तृतरूप अपना आप भासता है, अरु घन सुषुप्तरूप हो जाता है, जैसे पत्थरकी शिला पोलते रहित होती है, तैसे दृश्यते रहित घन सुषुप्त इसका रूप होता है, लोणवत् रसमय ब्रह्म हो जाता है, जैसे आकाशविषे शब्द लीन हो जाता है, तैसे इसका चित्त आत्माविषे लीन हो जाता है, जैसे वायु चलनेते रहित अचल होता है, तैसे चित्त अचल हो जाता है, जैसे गंध पुष्पविषे स्थित होता है, जैसे चित्तवृत्ति आत्मतत्त्वविषे विश्रामको पाती है, सो आत्मसत्ता कैसी है, न जड़ है, न चेतन है, सर्व कलनाते रहित अचैत्य चिन्मात्र है, अंकुररूप सर्व सत्ताके धारणेहारी देशकालके परिच्छेदते रहित है, जिसको वह प्राप्त होती है, तिसको तुरीयापद भी कहते हैं, सर्व दुःखकलंकते रहित पद है तिस सत्ताको पाइकरि साक्षीकी नाईं स्थित होता है, सर्वत्र सर्वदा काल सम स्थित है, सर्व प्रकाश वही है, अरु शाँतिरूप है, तिस आत्मसत्ताका जिसको आत्मतत्त्वकार अनुभव होता है, तिसको द्वितीय पद प्राप्त होता है ॥ हे मुनीश्वर ! यह द्वितीय पद तुझको कहा है, अब तृतीयपद श्रवण कर, जब वृत्तिका अत्यंत प्रणाम आत्मतत्त्वविषे होता है,तब ब्रह्म आत्मा आदिक नामकी भी तहाँ निवृत्ति हो जाती है, भाव अभावकी कलना कोई नहीं फुरती, स्थाणुकी नाई अचल वृत्ति हो जाती है, परम शांत निष्कलंक तुरीयातीत सबते जो उलंधित पद है, तिसको प्राप्त होता है सर्वका अंत अरु सर्व आधाररूप है, एक अद्वैत नित्य चिन्मात्र तत्त्व है, तुरीयाते भी आगे पद है, जिसविषे वाणीकी गम नहीं, तिस पदको प्राप्त होता है ।हे सुनीश्वर ! सर्व कलनाते हित अतीत पद मैं तुझको कहा है, तिसविषे स्थित होहु, सोई सनातन देव है, अरु विश्व भी वहीरूप है, वही तत्त्व संवेदनके वशते ऐसे रूप होकार भासता है, अरु वस्तुते न कछु प्रवृत्त है, न कछु निवृत्त है, समसत्ता प्रकाशरूप अद्वैत तत्त्व अपने आपवित्रे स्थित है, आकाशवत् निर्मल है, तिसविषे द्वैत एक भ्रमता अभाव है, एक चिद्धनसत्ता पाषाण- चुद अपने आपवित्रे स्थित है, तिसविषे अरु जगविखे भेद रंचक भी