पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१२०

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देवार्चनाविधानवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१००१) जैसी जैसी भावनाकरि फुरणा हुआहै, सोई रूप होकर देव स्थितहै । हे मुनीश्वर ! नित्य शुद्ध बोधरूप अद्वैत है, तिसको देखना, अपरविषे वृत्ति कोन लगावनी, यही देवका पूजन है, प्राण अपानरूपी स्थपर आरूढ हुआ, अंतर गुहाविषे जो स्थित है, तिसका जो ज्ञान है, अरु जेते कछु कर्म हैं, तिन सबका कर्ता वही है, सर्व भोगका भोक्ता वही है, शब्दका स्मरण करनेहारा वही है, अरु भागवतरूप है, सबकी भावना करनेहारा परम प्रकाशरूप हैं, ऐसा जो संवित् तत्त्व है, तिसको सर्वज्ञ जानकरि चितवना करणी सो तिसका पूजन है, बहुरि कैसा है देव ? सकल भी वही है, देहविषे स्थित है, तौ भी आकाशवत् निर्मल है, जाता भी है, अरु नहीं जाता भी वही है, प्राणरूपी आल- यविषे प्रकाशता है, हृदय, कंठ, तालु, जिह्वा, नासिका पीठविषे व्यापक है,शब्द आदि विषयको कर्ता मनको प्रेरताहै,जैसे तिलविषे तेल आश्रय भूत हैं, तैसे आत्मा सर्वविषे आश्रयभूतहै,कलनारूपी कलंकते रहित अरु कलनागणकार संयुक्त भी वही है, संपूर्ण देहों विषे एकही देवव्याप रहा है, परंतु प्रत्यक्ष हृदयविषे होताहै, सो निर्मल चिन्मात्र प्रकाशरूप है। कलनारूपी कलंकते रहित सदा प्रत्यक्ष है, अपने आपहीकरि अनुभव होता है, सर्वदा पदार्थका प्रकाश प्रत्यक्ष चेतन आत्मतत्त्व अपने आपविषे स्थित है, सो अपने फुरणेकारकै शीघ्रही द्वैतकी नाईं हो जाता है ॥ हे मुनीश्वर ! जेता कछु साकाररूप जगत् दृष्ट आता है, सो सब विराट् आत्मा है, ताते आपको विराकी भावना करु, हस्त पाद नख कैसे यह संपूर्ण ब्रह्मांड मेरा देह है, मैंही प्रकाशरूप एक देव हौं, अरु नीति इच्छा- दिक मेरी शक्ति हैं, सब मेरी उपासना करती हैं, जैसे स्त्री श्रेष्ठ भतरकी सेवा करती है, तैसे शक्ति मेरी उपासना करती हैं. बहुरि कैसा हौं, मन मेरा द्वारपाल है, त्रिलोकीका निवेदन करनेहारा है, अरु चितवना मेरी आनेजानेवाली प्रतीहारी है, नानाप्रकारके ज्ञान मेरे अंगके भूषण हैं, कर्मइंद्रियां मेरे द्वार हैं, ज्ञानइंद्रियां मेरे गण हैं, ऐसा मैं एक अनंत आत्मा अखंडरूप हौं, व्यवच्छेद भेदते रहित अपने आपविषे स्थित हौं, सर्वविषे. परिपूर्ण एक मैंही हौं ॥ हे मुनीश्वर ! इसी भावना कारकै जो एक देवकी