पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१३१

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( १०१३) यौगवासिष्ठः।। रिकै मैं निवसनिक हैं; जंगकी क्रियाविषे भी मैंःनिदुःख होकरि चेष्टा करता हौं, व्यवहार करता दृष्टि आता हौं, तो भी सदा शाँतिरूप हौं, यथाप्राप्त आचाररूपी फूलकार मैं आत्मदेवकी अर्चना करता हैं, छेद भेद मुझको कोई नहीं होता ॥ हे रामजी ! विषय अरुइंद्रियोंका संबंध सर्वं जीवको तुल्य है, अरु जो ज्ञानवान् पुरुष हैं, सो सावधान रहते हैं, जो कछु देखते, सुनते, बोलते, खाते, सँघते, स्पर्श करते हैं, सो आत्मा- तत्त्वविषे अर्चन करते हैं, आत्माते इतर नहीं जानते, इसप्रकार सावधान रहते हैं, अरु अज्ञानी हैं, तिनको कर्तृत्व भोकृत्वका अभिमान होता है, तिसकर दुःखी होते हैं ॥ हे रामजी ! तुम भी ऐसी : दृष्टिको आश्रय कारिकै संसाररूपी वनविषे विचरौ, निःसंग होकर तुमको खेद कछु न प्राप्त होवैगा, जिसकी वृत्ति इसप्रकार समान हो गई है, तिसको बड़ा कष्ट आनि प्राप्त होवै, धनबांधवका वियोग होवै, तो भी तिसको खेद नहीं होता, यह जो दृष्टि मैं तुझे कही है, तिसका आश्रय करेगा, तब • तुझको ख कोऊ न होवैगा । हे रामजी । सुख दुःख धन बाँधवका - वियोग यह सब पदार्थ अनित्य हैं, यह आते भी हैं, जाते भी हैं, इनको आगमापायी जानकारि विचरौ, यह संसार विषमरूप हैं, एक रस कदा- चित नहीं रहता इसको स्थित जानकारि दुखी नहीं होना । हे रामजी। पदार्थ काल जैसे जावै, तैसे जावै अरु जैसे सुखदुःख आवै, तैसे आवै, यह सब आगमापायी पदार्थ हैं, आते भी हैं; जाते भी हैं, इष्टकी प्राप्ति अनिष्टकी निवृत्तिविषे हर्षवान् नहीं होनी अरु अनिष्टकी प्राप्ति इष्टके वियोगकरि खेदवार नहीं होना, जैसे आवै तैसे जावै, जैसे जावे तैसे आवै, जिसे आचना है सोआवैगा, जिसे जाना है सो जावैगा, ये सुखदुःख प्रवादरूप हैं, इनविषे आस्थाकार तपायमान नहीं होना । हे रामजी ! यह सब जगंतु तूही है, अरु तूही जगतरूप है, अरु चिन्मात्र विस्तृत आकार तू है, जब तूही है, तब बहुरि हर्ष शोक किसनिमित्त करता है, इसी दृष्टिको आश्रयकारकै जगतविषे सुषुप्तिकी नाईं विचरु, बहुरि तुरी- यातीत अवस्थाको प्राप्त होवैगा, जो सम प्रकाशरूप है ॥ हे रामजी ! जो कछु मुझे तुझको कहना था, सो कहा है, आगे जो तेरी इच्छा होवै