पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१५८

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अर्जुनोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०३९ ) नहीं होता, काहेते जो अज है, नित्य है, निरंतर पुरातन है सर्वकी आदि है, तिसका शरीरके नाश हुए नाश नहीं होता। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्व- णप्रकरणे नारायणावतारवर्णनं नाम एकपंचाशत्तमः सर्गः ॥ ३१ ॥ हिपंचाशत्तमः सर्गः ५२. अर्जुनोपदेशवर्णनम् । श्रीभगवानुवाच ॥ हे अर्जुन ! जो इस आत्माको हंता मानते हैं, कई इननकिया कर्ता है; अरु इस आत्माको हत होता मानते हैं, सो आत्माको नहीं जानते, न यह आत्मा मारता है, न मरता है, काहेते मारता मरता नहीं, जो अक्षयरूप हैं, अरु निराकार आकाशते भी सूक्ष्म है, तिस आत्मा परमेश्वरको कौन किसप्रकार मा॥हे अर्जुन ! तू अहंकार- रूप नहीं, इस अनात्म अभिमानरूपी मलका त्याग करु, तू जन्ममरणते रहित मुक्तिरूप हैं । जिस पुरुषको अनात्मविषे अहंभाव नहीं अरु बुद्धि जिसकी कर्तृत्वभोक्तृत्वविषे लेपायमान नहीं होती, सो पुरुष सब विश्वको मारे तो भी उनको नहीं मारता, न बंधमान होता है ॥ है। अर्जुन ! जिसको जैसा दृढ निश्चय होता है, तैसाही तिसको अनुभव होता है, ताते यह मैं मेरा जो मलिन संविनिश्चय होता है, तिसका त्यागकर स्वरूपविषे स्थित होउ, जो ऐसी भावनाविषे स्थित नहीं होते, अरु आपको नष्ट होता मानते हैं, सो सुखदुःख कारकै रागद्वेष- विषे जलते हैं ॥ हे अर्जुन ! अपने गुणोंके असंख्य कर्मोवि वर्तते हैं, शब्द स्पर्श रूप रस गंध इनते पांचों तत्त्व, आकाश वायु अग्नि जल पृथ्वी उपजे हैं, तिन भूतोंके अंश श्रवण त्वचा नेत्र जिह्वा नासिका विषयविषे स्थित हैं, वह अपने विषयको ग्रहण करते हैं, नेत्र रूपको ग्रहण करते हैं, त्वचा स्पर्शको, जिह्वा रसको, नासिका गंधको, श्रवण शब्दको ग्रहण करते हैं, तिसविषे अहंकारकारे जो सूढ हुआ है, सो आपको कर्ता मानता है, मैं देखता हौं, मैं सुनता हौं, स्पर्श करता हौं, स्वाद लेता हौं, गंध लेता हौं । हे अर्जुन ! यह सब कर्म कलना कारकै रचे हैं,सो इंद्वियकार कर्म होते हैं,अहंभावकार यह वृथा केशका