पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१७७

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( १०५८) यौगवासिष्ठ । रिकै चित्तका अभाव करता है, तब चित्त नष्ट होता है, चित्तअचल हो जाता है, जैसे बालकको अंधकारविषे पिशाच भासता है; अरु दीपक जलाये देखनेते अंधकार निवृत्त हुए पश्चात् पिशाचभ्रम नष्ट हो जाता है तब बालक निर्भय होता हैं, तैसे आत्मज्ञान युक्तिकार अज्ञान निवृत्त होता है, असम्यक् बुद्धि कारकै जगद्धम हुआ है, सम्यक् बोधकारि निवृत्त हो जाता है, बहुर जाना नहीं जाता कि, अज्ञानका जगत्भ्रम कहाँ गया, जैसे दीपकके निर्वाण हुए नहीं जानना कि, प्रकाश कहाँ गया, तैसे अज्ञान नष्ट हुए नहीं जानता कि, जगत् कहां गया, चित्तके फुरणेकार बंध होता है, अरु अफुरण हुए मोक्ष होता है, परंतु आत्माते भिन्न कछु नहीं आत्मसत्ता ज्योंकी त्यों है, तिसविषे न बंध है, न मोक्ष है । हे रामजी ! जब इसको मोक्षकी इच्छा होती है, तब भी इसकी पूर्णताका क्षय होता है, अरु निःसंवेदन हुए कल्याण होता है, जो अना- भास अजड़रूप परमपद है, सो चैतन्योन्मुखत्वते रहित है। हे रामजी ! बंध मोक्ष आदिक भी कलनाविषे होते हैं, जब कलनाते रहित बोध होता है, तब बंध मोक्ष दोनों नहीं रहते जबलग विचारकार नहीं देखा, तब- लग बंध अरु मोक्षभासता है, विचार कियेते दोनोंका अभाव हो जाता है, जब अहं त्वं इदं आदिक भावनाका अभाव हुआ, तब कौन किसको बंध कहै, अरु कौन किसको मोक्ष कहै, सब कलना चित्तके फुरणेकार होती है, जब वित्तका ऊरणा नष्ट होता है, तब सब कलनाका अभाव हो जाता है तव शांतिमान होता है, अन्यथा नहीं होता, ताते चित्तको आत्मपदविषे लीन कर, जिनके आश्रथ यह जगत् उपजता है, अरु लीन होता है, ऐसा जो ज्ञानरूप आत्मा है, तिसी अनुभवरूप प्रत्यक् आत्मप्रकाशविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे प्रत्य- गात्मबोधवर्णनं नाम सप्तपंचाशत्तमः सर्गः ॥५७ ।।