पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१८५

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योगवासिष्ठ । नाते रहित होनाही सुख है, आगे जो तेरी इच्छा होवै सो करु, इस चित्तके फुरणेकार संसार है, अरु निवृत्त होनेते स्वरूपही है, जैसे पत्थ- रविघे पुतलियां पुरुष कल्पता है, तब पत्थरते भिन्न पुतलियोंका अभाव है, तैसे चित्तने विश्व कल्पा हैं, जब चित्त निवृत्त होवै, तब विश्व अपना स्वरूप है, अपर भिन्न कछु नहीं, अरु चित्तसाथ जहां जावै, तहां तहां पंचभूतही दृष्टि आते हैं, आत्मा दृष्टि नहीं आता, अरु चित्तते रहित ज्ञानी जहाँ जावै तहां आत्माही दृष्टि आते हैं, जब चित्तकी वृत्ति बहि- मुंख होतीहै, तब संसार होता है, पंचभूतही दृष्ट आते हैं, अरु जब चित्तकी वृत्ति अंतर्मुख होती है, तब ज्ञानरूप अपना आपही भासता है, जेते कछु पदार्थ हैं, सो अज्ञानरूप आत्माविना सिद्ध नहीं होते, प्रथम आपको जानता है, तब पाछे अपर पदार्थ जानते हैं, इसीते ज्ञानवान् सर्व अपना आप जानता है । हे रामजी ! यह जेते कछु पदार्थ हैं, सो ऊरणेकार कल्पते हैं, अरु जेते जीव हैं, तिनकी संवेदन भिन्न भिन्न है, अरु संवेदनविषे अपनी अपनी सृष्टि है, जैसे कोऊ पुरुष सोता है, तिस को अपने स्वप्नकी सृष्टि भासती है, अरु अपर तिसके पास बैठा होता हैं, उसको नहीं भासती, उसकी विश्व स्वप्नको नहीं जानती, अरु जो ज्ञानी है, तिस को अपना आपही भासता है, यह जगत् सब अपना रूप जानता है, अरु ज्ञानी जिस ओर देखता हैं, तिस ओर तिसको पांच- भौतिक दृष्ट आते हैं, जैसे पृथ्वीके खोदेते आकाशही दृष्ट आता है, तैसे ज्ञानी चित्तसहित जहां देखता है, तहां पंचभूतही दृष्ट आते हैं ताते हे रामजी ! तू ऊरणेते रहित होहु ऊरणेही कारकै बंध है, अफुरणेकरिकै मोक्ष है, आगे जैसे तेरी इच्छा हो तैसा कर ।। हे रामजी ! जो अफुरणेक- रिकै अस्त हो जावे, तिसके नामविषे कृपणता करनी क्या है, अरु जो अफुरणेकारकै प्राप्त होवै, तिखको प्राप्तरूप जान ॥ राम उवाच हे मुनीश्वर ! यह झीवट ब्राह्मणते आदि लेकर संन्यासीके रूप स्वप्नविषे हुए, तिसते उपरांत बहुरि क्या हुआ ? ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! • ब्राह्मणते आदि जेते शरीर थे, सो रुद्रकार जगाये हुए सुखी भये जब ‘सबही इकडे भये, तब रुद्रने तिनको कहा हे साधो! तुम अपने अपने