अलकताप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६! (१०७३) वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी-1 यह शुद्ध अशुद्ध अज्ञानीको कहते हैं। - जो शुद्धविषे व अशुद्धविषे न वतै अरु जो ज्ञानी है, सो क्रियाको अपनेविषे नहीं देखता, तिसको शुद्ध अशुद्ध मलिनकार राग द्वेष कछु नहीं होता, ऐसा जो सदाशिव हैं, तिसकौ न ग्रहण करना है, न त्याग करना है, जो स्वाभाविक चेष्टा होती है, सो होवै, सो कैसी होती है, श्रवण करु, आदि परमात्माविषे विष्णु भगवान्का ऊरणा हुआ, जो चार भुजा धारे, संसारकी रक्षा करनी, शुद्ध चेष्टा राखनी, अरु अव- तार धारण, धमकी रक्षा करनी, अरु पापीको' मारणे यह आदि ऊरणा हुआ है ॥ हे रामजी ! यह क्रिया स्वाभाविकही जो आनि प्राप्त हुई है, इस क्रियाका इनको रागद्वेषकारकै हेयोपादेय कॐ नहीं, अरु क्रियाका इनको अभिमानही नहीं, जो हम करते हैं, इसीते क्रिया इनको बंध नहीं करती, ताते यह संसार ऊरणेमात्र है, जब तू ऊरणेते रहित होगा, तब तेरे ताई त्रिपुटी न भासैगी, आत्माते इतर कछु भासैगा, ताते हैं अज्ञानरूप ऊरणेते रहित होहु, जब तुमको आत्मपंदका साक्षात्कार होवैगा, तब तू जानैगा कि, मेरेविषे फुर दृश्य अदृश्य कछु नहीं, अरु आत्मपद है, जिसविषे एक कहना भी नहीं, तब द्वैत कहते होवे । हे रामजी ! दृश्य अदृश्य ऊरणा अफ़रणा अरु विद्या अविद्या, यह सब जतावनेके निमित्त कहते हैं, अरु आत्माविषे कहना कछु नहीं; आत्मा एक है, जिसविषे द्वैतका अभाव है, जब चित्तपरिणाम बहिर्मुख होते हैं, तब विश्वका भान होता है, अरु जब चित्त अंतर्मुख परि- णाम पातहि तब अहंता ममताका नाश होता है, अरु चेतनमय शेष रहता है, अरु जब अतिशय अंतर्मुख परिणाम पाता है, तब चेतन कहना भी नहीं, रहता, अरु जब इसते भी अतिशय परिणाम पाता है, तब हैं नहीं कहना भी नहीं रहता ॥ हे रामजी ! ऐसा आत्मा तेरा अपना आप स्वरूप है, अरु शान्त पद हैं जिसविषे वाणीकी गम नहीं, जो ऐसा कहिये अरु तैसा कहिये ऐसा कहिये इंद्रि- योंका विषय है अरु तैसा कहिये इंद्रियोंते पर है, जब तू अपने विषे स्थित होवैगा, तब जानैगा कि, मेरेविषे अहं ऊरणा कछु नहीं आत्मरूपी सूर्यके साक्षात्कार हुएते दृश्यरूपी अंधकारका अभाव हो