पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भगीरथोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०८१), ताई नहीं प्राप्त भई, जो आत्मा चिन्मात्र मेरे ताई नहीं भासता, अरु स्थिति नहीं भई, सो कृपाकर कहौ. जो मैं स्थित होऊँ॥ ऋषिरुवाच ॥ हे राजा ! ज्ञान तेरे ताईं कहताहौं, जिसके जानेते बहुरि दुःख कोई न रहेगा, तिस ज्ञानकारि ज्ञेयविषे तेरे ताई निष्ठा होवैगी, तब तू सर्वात्मरूप होकरि स्थित होवैगा, जीवभाव तेरा नष्ट हो जावैगा ॥ श्लोक ॥ असक्तिरनभिष्वंगः पुत्रदारगृहादिषु ॥ नित्यं च समचित्तत्व मिष्टानिष्टोपपत्तिषु, ॥ आसक्त न होवैगा अरु अनभिष्वैग होवैगा, आ- सक्त न होना कहिये देहइंद्रियादिकविषे आत्मअभिमान न करना इनको आप न जानना, अरु अनभिष्वंग कहिये पुत्र स्त्री कुटुंबके दुःखकार आपको दुःखी न जानना, अरु नित्यही समचित्त रहना, इष्ट अनिष्टकी प्राप्तिविषे एकरस रहना, अरु चित्तको आत्मपदविषे जोडना, आत्माते इतर चित्तकी वृत्ति न जावै, अरु एकांत देशविषे स्थित होना, अरु अज्ञानीका संग न करना, अरु ब्रह्मविद्याका सदा विचार करना, तत्त्व ज्ञान के दर्शननिमित्त यह तेरे ताई ज्ञानके लक्षण कहे हैं, अरु इसते विप- रीत है, सो अज्ञान है ॥ हे राजा ! यह ज्ञेय जानने योग्य हैं, इसके जानेते केवल-शतपदको प्राप्त होवैगा अरु देहका अहंकार भी निवृत्त होवैगा ॥ हे राजा ! पहिले अहं होता है, तब पाछे मम होती है, ताते तू अहे ममका त्याग करु, जब अहंममका त्याग करैगा, तब आत्मपद अहंप्रत्ययकार भासैगा, सो आत्मा सर्वज्ञ है, अरु सर्वं भी आप है, स्वतःप्रकाश है, अरु आनंदरूप हैं, कैसा आनंदरूप है, जो संसारके आनंदते रहित है, जब ऐसे गुरुने कहा, तब राजा बोलत भया ।। राजो- वाच ॥ हे भगवन् ! यह अहंकार तौ चिरकालका देहविषे रहता है, अरु अभिमानी है, जैसे पर्वतपर चिरकालका वृक्ष स्थित होता है, अरु तिसका नाम प्रसिद्ध होता है, तैसेही अहंकार चिरकालका देहविषे अभि- मानी हैं, तिसका त्याग कैसे करौ सो कहौ ॥ ऋषिरुवाच ॥ हे राजा! अहंकार पुरुषप्रयत्न करिकै निवृत्त होता है, सो श्रवणकर; प्रथम भोग- विषे दोषदृष्टि करनी, भोगकी वासना न करनी, अरु वारंवार अपने स्वरूपकी भावना करनी, विचार करना, इसकरिकै जीव अहंकार तेरा