पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२१०

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अग्निसमविचारवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०९१) अभोगको भोगा है, तिस भोगकर तृप्त हौं, अभोग कहिये आत्म-. ज्ञान, तिसको मैं पाया है, आत्माविषे विश्राम है, सदा शतिरूप - श्रीमान् हौं । हे राजन् ! जेते यह राजभोग सुख हैं, तिनको त्यागिकार परमसुखको भोंगती हौं, रागद्वेषते रहित होकर मैं कैसी हौं, जो मैं नहीं अरु मैंही स्थित हौं, अरु जेता कछु नेत्रोंकार दीखता हे, अरु इंद्रियों- कारि जानता है, अरु मनकरि, चितवना करता है, सो सब स्वप्नवत् मिथ्या है, अरु मैं तहाँ स्थित भई हौं जहां इंद्रियाँ अरु मनकी गम नहीं, अरु अहंकारका उत्थान भी जिसविषे नहीं तिस पदको मैं पाईं हौं, जो सर्वका आधार है. अरु सर्वका आत्मा है, अरु सर्व जो अमृत है, तिसका सार अमृत मैं पान किया है, ताते मेरा नाश कदाचित् नहीं, अरु भय भी कदाचित् नहीं ॥ हे रामजी । इसप्रकार रानीने जब कहा, तब राजा शिखरध्वज तिसके वचनोंको न जानत भया, हाँसी करी, अरु कहा ॥ हे मूर्ख स्त्री ! यह तू क्या कहतीहै, कि प्रत्यक्ष वस्तुको झूठ कहती है, अरु कहती है, मैं नहीं देखती, अरु जो असत् है, दीखता नहीं तिस- को सत्य कहती है, मैं देखती हौं, यह वचन तेरे कौन मानेगा, इन वचनोंवाला शोभा नहीं पाता, अरु कहती है कि, ऐश्वर्यको त्यागिरि श्रीमान भई हौं, निष्किचनको पायकारे इन वचनोंवाला शोभा नहीं पाता, अरु कहती हैं, इन भोगोंका त्याग किया है, अरु इनते जो रहित अभोग है, तिसको मैं भोगती हौं, ताते तू मूर्ख है, अरु कहती हैं मैं कछु नहीं, बार कहती है, मैं ईश्वर हौं, इसते महामूर्ख दृष्ट आती है, अरु जब इसीविषे तेरा चित्त प्रसन्न है, तब त्यौं विचरु परंतु यह बात सुनि- कार सत् कोऊ न मानेगा, जैसे तेरी इच्छा है, तैसे विचर, परंतु तेरे ताई यह शोभा नहीं ।। हे रामजी ! ऐसे कहिकार राजा उठि खड़ा हुआ, मध्याह्नका समय था, स्नानके निमित्त गया, तब राणी मनविषे बहुत शोकवान भई, अरु विचार किया कि बडा कष्ट है, राजाने आत्मपदविषे स्थिति न पाई, अरु मेरे वचनोंको जानत न भया, रानी ऐसे मनंविषे धारिकार अपने आचारविषे प्रवर्त्तने लगी, बहुरि अपना निश्चय राजा- को न दिखाया, जैसे अज्ञान कालविषे चेष्टा करती थी, तैसेही ज्ञान-