पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२३९

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(११२०) यौगवासिष्ठ । वृक्षको तैने काटा वैराग्यरूपी शस्त्रकारिकै तब अज्ञानरूपी वैताल भागा। अरु मूर्खताकारकै तिसको तैने न मारा, तिसको छाडिकारि तू वनविषे गया, जब तू वनविषे आया तब अज्ञानरूपी महावत तेरे पाछे चला आया,आयकर तेरे चौफेर खाईं करी जो तपादिक क्रियाका आरंभ किया तिस खाईंविषे तू गिर पडा, अरु महादुःखको प्राप्त भया, तब तेरेको संक लसे बहार बांधा, अरु देखने लगा कि, अबतक दुःख पाता है, अब तू कैसी खाईंविषे गिरा हैं, जो अनात्माभिमानकरिकै यहाँ तपादिक क्रिया का आरंभ किया है, जो मैं कहता हों ऐसी खाईंविषेतू पडा है, ॥ हे राजन् तू जानिकार खाईंविषे नहीं पडा खाइँके ऊपर घास तृण पडा था, छल करिकै तू गिर पड़ा है, सो छल अरु तृण कौन हैं, तू श्रवण करु, प्रथम जो अज्ञानरूपी शत्रुको न मारा अरु संकलोंके भय कारकै तू भागा, जो वन मेरा कल्याण करेगा, संत अरु शास्त्रके वचनोंको न जाना, जो तेरे दुःखको निवृत्त करै अरु उन वचनरूपी खाईंपर तृणादिक था, मूर्खता कारकै तू गिरा जैसे बलिराजा पातालविषे छल कारकै बाँधा हुआ है। तैसे भविष्यका विचार किया नहीं जो अज्ञानशच्च रहा हुआ मेरा नाश करेगा, तिस विचार विना तू बहुरि दुःखी हुआ, सर्व त्यागतौ किया परंतु ऐसे न जाना कि मैं अक्रिय हौं यह क्रियाका आरंभ काहेको करता हौं, इसीते तू बहुरि फांसीसे बाँधा है, ॥ हे राजन् जो पुरुष इस फांसीते मुक्त भया सो मुक्त है, अरु जिसका चित्त अनात्म अभिमानकार बांधा । है कि, यह मेरेको प्राप्त होवै तिसकार दुःखको पाता है, जिस पुरुषने वैराग्यविवेकरूपी दंतोंकार अशारूपी जंजीरको नहीं काटा, सो कदाचित सुख नहीं पाता, विवेकते वैराग्य उत्पन्न होता है, अरु वैराग्यते विवेक होता हैं, विवेक कहिए सत्यको जानना, अरु असत् देहादिकको असत्य जानना, जब ऐसे जाना, तब असकी ओर भावना नहीं जाती, सो वैराग्य हुआ, अरु वैराग्यते विवेक उपजता है, विवेकते वैराग्य उपजता है, इन विवेक अरु वैराग्यरूपी दंतकार आशारूपी संकलको तोड। हे राजन् ! यह हस्तीका वृत्तांत जो तुझको कहा है, इसके विचार कियेते तेरा मोह निवृत्त हो जावैगा; हे राजन् ! हस्ती बडा बली था, अरु