पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२५०

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राजविश्रांतिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११३१) है कि, मेरा स्वरूप आत्मा है; अहं त्वं मेरेविषे कोई नहीं; तुम भी इस अहंरूप कलंकताको दूरकार रहे हौ, मेरेते दूर नहीं होता, बहुरि बहुरि आय फुरता है कि, मैं शिखरध्वज हौं, इस अहंकरिके मैं संसारी हौं इसके नाशकरणेका उपाय तुम कहौ ॥ कुंभ उवाच, हे राजन् । कारणविना कार्य नहीं होता, अरु जो कारणविना कर्य भासे तो जानिये कि; भ्रममात्र हैं, अरु मिथ्या है, अरु जिसका कारण पाइये सोजानिये कि, सत्य है, ताते तू कहें, इस अहंकारका कारण क्या हैं, तब मैं उत्तर कहौंगा ।। राजोवाच ॥ हे भगवन् ! अहंकारका कारण शुद्ध आत्मा है, शुद्ध आत्माविषे जो जानना हुआ है, जाननमात्रविषे जाननेका उत्थान हुआ है, जो दृश्यकी ओर लगा है, सो जानना संवेदनही अहंका कारण है ॥ कुंभ उवाच ॥ हे राजन् ! इस जाननेका कारण क्या है, प्रथम तू यह कडु, पाछे दूर करणेका उपाय मैं कहाँगा । हेराजन् ! जिसका कारण सद होता है, तो कार्य भी सत्व होता है, अरु जो कारण झुठ होता है, तौ कार्य भी झूठ होता है, जैसे भ्रम दृष्टि कारकै दूसरा चंद्रमा आकाशविषे देखता हैं, सो कारण तिसका भ्रम है, ताते इस जानने संवेदनका कारण कछु कि, क्या है, जो जानना संवेदन दृष्ट अरु दृश्यरूप होकार स्थित भई हैं, अरु दृश्यरूप होकार स्थित भई है ॥ राजोवाच ॥ हे देवपुत्र | जाननेका कारण देहादिक दृश्य, काहेते कि, जानना तब होता है, जब जानने योग्य वस्तु आगे होती है, जो आगे वस्तु नहीं होती है तौ तिसका जानना भी नहीं होता, ताते जाननेका कारण देहादिक हुए । कुंभ उवाच ।। हे राजन् ! यह देहादिक मिथ्या हैं, भ्रम कारकै हुए हैं, इनका कारण तो कोई नहीं ॥ राजोवाच ।। हे देवपुत्र ! देहका कारण तो प्रत्यक्ष है, खाता पीता है, अरु पिताते इसकी उत्पत्ति भई है, -अरु प्रत्यक्ष कार्य करता दृष्ट आता है, तुम कैसे कहते हौ, कि, कारणविना है, अरु मिथ्या है, ॥ कुंभ उवाच ॥ हे राजन् पिताका कारण कौन, पिता भी मिथ्याहै, जैसे स्वप्नविषे पिता अरु पुत्रदेखिये सो दोनों मिथ्या हैं, ताते कडु पिताका कारण क्या है ॥ राजोवाच ॥ हे भगवन! पुत्रका कारण पिता अरु पिताका कारण पितामह है, इसीप्रकार परंप