पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२७

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योगवासिष्ठ।

हो जाता है, जैसे पक्षीको पिंजरेविषे बडा मार्ग होता है, अरु जैसे कोल्हूके बैलको घरहीविषे बड़ा मार्ग होता है, तैसे अज्ञानीको तुच्छ संसार बड़ा हो भासताहै॥ हे रामजी‍! जिस जगत‍्कोरमणीय जानिकरि पदार्थकी इच्छा करता है, सो सब पांचभौतिक पदार्थ हैं, मोह करिकै तिनको सुंदर जानता है, अरु तिनविषे प्रीति करता है, स्थिर जानता है, सो अनर्थके निमित्त होते हैं॥ हे रामजी! अज्ञानरूपी चंद्रमा उदय हुआ है, तिस करि भोगरूपी वृक्ष पुष्ट होते हैं, जन्मकी परंपरा रसको पावते अरु कर्मरूपी जलकरि सिंचते हैं, पुण्य अरु पापरूपी मंजरी होती है, अरु अज्ञानरूपी चंद्रमा है, अरु वासनारूपी अमृत है, आशारूपी चकोर तिसको देखकरि प्रसन्न होता है, अरु आशारूपी कमलिनी हैं, अज्ञानीरूपी भँवरा तिसपर बैठिकरि प्रसन्न होता हैं, ताते सब जगत् विज्ञानकरिकै रमणीय भासताहै॥ हे रामजी! यह जगत् अज्ञानकारिकै स्थित है, तिस अज्ञानका प्रवाह सुन, अज्ञानरूपी चंद्रमा पूर्ण होकार स्थित होता है, तब कामनारूपी क्षीरसमुद्र उछलता है, अरु अनेक तरंगको पसारता है, तिसके रसकरि तृष्णारूपी मंजरी पुष्ट होती है, अरु काम क्रोध लोभ मोहरूपी चकोर तिसको देखि प्रसन्न होते हैं, अरु देह अभिमानरूपी रात्रिके निवृत्त हुए अरु विवेकरूपी सूर्यके उदय हुए अज्ञानरूपी चंद्रमाका प्रकाश निवृत्त हो जाता है॥ हे रामजी! अज्ञानकरिकै यह जीव भ्रमते हैं, अरुचेष्टा इनकी विपर्यय होगई हैं, जो तुच्छ नीच दुःखरूप पदार्थ हैं, तिनको देखिकरि सुखदायक रमणीय जानते हैं, स्त्रीको देखि प्रसन्न होते हैं, कवीश्वर कहते हैं, इसके कपोल कमलवत् हैं, अरु नेत्र भँवरेवत् हैं, होठ हँसनेवाले हैं, अरु वल्लीकी नाईं इसकी भुजा हैं, अरु कंचनके कमलवत् स्तन हैं, उदर अरु वक्षस्थल बहुत सुंदर हैं औ जंघास्थल केलेके स्तंभवत्, इत्यादिक जिसकी स्तुति करते हैं, सो स्त्री रक्तमांसकी पूतली है, कपोल भी रक्तमांस हैं, होठ भी रक्तमांस हैं, भुजा विषके वृक्षके टासवत् हैं, स्तन भी रक्तमांस हैं, और भी संपूर्ण शरीर रक्तमांस अस्थिकरि पूर्ण एक बुत बनी है, इसको जो रमणीय जानते हैं, सो मूर्ख मोहकरि मोहित भये हैं, अपने नाशके निमित्त