पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२७३

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(११५४ ) योगवासिष्ठ । उड़ता है, बहर आलयविषे आय प्रवेश करता है, तैसे अपने शरीरविषे आनि स्थित भई, अरु सामवेदका महासुंदर स्वरसाथ गायन करने लगी, तब राजाने श्रवण किया, अरु जानत भया कि, कोङ सामवेद गाता है, ऐसे श्रवण करि जागा, अरु देखा कि, कुंभमुनि बैठा है, देखकर बहुत प्रसन्न भयो, तब फूल जल चढायो अरु कहा ॥ हे भगवन् ! मेरे बड़े भाग्य हैं, देखकर बहुत प्रसन्न भया, जो तुम्हारा दर्शन हुआ हे भगवन् ! कुलरूपी जो कुलाचल पर्वत है, तिसविषे जो देहरूपी वृक्ष है, सो अब फूला है, तुमने हमको पावन किया है। हे भगवन् ! किसीकी समर्थता नहीं, जो तुमसारखेके चित्तविषे प्रवेश करे, जिसविषे सर्वदा आत्माका निवास है, तिस चित्तविषे मेरी स्मृति हुई हैं, जो दर्शन किया है, ताते मेरे बड़े भाग्य हैं। हे भगवन् ! अमृतरूपी वचनोंकरि तुमने प्रथम मेरे ताई। पवित्र किया था, अरुअब जो चित्त किया है, सो मेरे ताई पावन किया है। कुंभ उवाच ॥ हे राजन् ! तेरे दर्शन कारकै मैं भी बहुत प्रसन्न हुआ हौं, अरु तुम्हारी जैसी प्रीति मैं आगे किसीकी नहीं देखी ॥ हे राजन् ! तेरे निमित्त मैं स्वगते आया हौं, स्वर्गके सुख मेरे ताईं भलेन लगें, अरु तू मेरे ताईं बहुत प्रीतम है, इसी निमित्त मैं आया हौं, अब स्वर्गविषे भी नहीं जाता, तेरेही पास रहौंगा ॥ राजोवाच ॥ हे भगवन् । जिसके ऊपर तुमसारखेकी कृपा होती हैं, तिसको स्वर्ग आदिक सुख भले नहीं लगते तो तुम सारखेकी बात क्या कहनी है, यह वन है, यह झुपडी है, इसविषे विश्राम करो, मेरे बडे भाग्य हैं, जो तुम्हारा चित्त यहां रहनेका भया है । कुंभ उवाच॥हे राजन् ! अब तेरे ताई शांति प्राप्त भई है, अरु संकल्पबीज नष्ट भया है, जैसे नदीके किनारे पर वल्ली होती है, अरु जलके प्रवाहकार मूलसमेत गिरती है, तैसे तेरा संकल्पबीज नष्ट भयो है, अब तू यथाप्राप्तिविषे संतुष्ट हुआ है, कि नहीं हुआ, हेयोपादेयते रहित हुआ है कि नहीं हुआ अरु जो पाने योग्य पद है सो पाया है, कि नहीं पाया, अपना अनुभव कहु।राजोवाच ॥ हे भगवन् ! तुम्हारी कृपाते सर्वसों श्रेष्ठ पद मैं पाया हौं, जहां संसारसीमाका अंत है, अरु अब मेरे ताई उपदेशका अधिकार नहीं रहा, जो संपूर्ण संशय मेरे नष्ट भये हैं