पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२७८

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३ विवाहलीलावर्णन-निवार्णप्रकरण ६, (११५९ ) धान हुआ,अरु कहत भया । हे सुनी ! क्या हुआ जो शरीर स्त्रीका हुआ, तुम तौ शरीर नहीं, तुम आत्मा हौ, ताते शोक क्यों करिये, तुम अपनी सत्ता समानविषे स्थित होई, तब रात्रि हुई अरु राणीने महासुंदर रूप धारे, फूलोंकी शय्या बिछाई, तिसपर दोनों इकटे सोए, हे रामजी ! ऐसे रात्रि व्यतीत भई, कोऊ फुरणा न फुरा, सत्ता समानविषे दोनों स्थित रहे, अरु सुखते कछु न बोले, सोइ गए, जब प्रातःकाल हुआ तब बहुरि कुंभका शरीर धारा, स्नान किया, अरु गायत्रीते आदि जो कर्म हैं, सो किये, इसी प्रकार रात्रिको स्त्री बनि जावें, अरु दिनको कुंभ पुरुघका शरीर धारे, जब कछु काल ऐसे व्यतीत भया, तब वहाँते चले अरु सुमेरु पर्वत ऊपर गए, मंदराचल अरु अस्ताचलते आदि सर्व सुखस्थानोंको देखते भये । हे रामजी | हक दृष्टिको लिये रहैं, न कोऊ हर्षवान् हुए, न शोकवान हुए, ज्योंके त्यों रहैं, जैसे पवनकारि सुमेरुप । वैत चलायमान नहीं होता, तैसेही शुभ अशुभ स्थानोंविषे समान रहैं । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे शिखरध्वजस्वीप्राप्तिवर्णनं नाम यशीतितमः सर्गः ॥ ८ ॥ त्र्यशीतितमः सर्गः ८३. विवाहलीलावर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इसप्रकार विचरते विचरते मंदराचलकी कंदराविषे जाय स्थित भये, तब कुंभरूप चूडाला राजाको परीक्षाके निमित्त कहत भई ॥ हे राजन् ! मैं रात्रिको स्त्री होती हौं, तब मेरे ताई भत्तके भोगनेकी इच्छा होती है काहेते कि, ईश्वरकी नीति ऐसेही हैं, कि स्त्रीको अवश्यमेव पुरुष चहिता है, अरु जो उत्तम कुलका पुरुष होता है, तिसको पिता कन्या विवाह कारकै देता है, अथवा जिसको स्त्री चाहे तिसको आप देखि लेवै ॥ ताते हे राजन् ! मेरे ताई तुझते अधिक कोऊनहीं दृष्ट आता, तूही मेरा भत्त है, अरु मैं तेरी स्त्री हौं, तू अपनी