पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(११९६ )
योगवासिष्ठ।

तब सर्वविकार नष्ट हो जावेंगे ॥ हे राजन् ! ऐसा आत्मा विकारतेरहित तेरा स्वरूप है, तिसकी भावना करु, जो तेरे दुःख नष्ट हो जावें, अरु आत्मपदको कहूँ खोजने नहीं जाना, अरु किसी वस्तुको जायकार ग्रहण नहीं करना कि, यह आत्मा है, अरु किसी कालकी अपेक्षाभीनहीं कि इसकालकार पावैगा, आत्मा तेरा अपना स्वरूप है, अरु सर्वदा अनुभवरूप है, तुझते इतर कछु वस्तु नहीं, तु आपको ज्योंका त्यों जान, आत्माके न जाननेकर आपको दुःखी जानता है कि, मैं मरौं, दरिद्री हौं, मैं दास हौं, इत्यादिक दुःख तवलग होते हैं,जबलग आत्माको नहीं जाना, जब आत्माको जानैगा, तब आनंदरूप हो जावैगा, जैसे किसी स्वीके गोदविषे पुत्र होवै, अरु स्वप्नविषे देखतभई कि, बालक मेरे पास नहीं, तब बड़े दुःखको प्राप्त भई, अरु रुदन करने लगी, जब स्वप्नते जागै, तब देखै कि बालक मेरे गोदविषे है, अरु एता दुःख मैं भ्रमकारकै पाया है, बडे आनंदको प्राप्त भई, अरु दुःख शोक नष्ट होगए ॥हे राजन् ! तिसी प्रकार आत्मा तेरा अपना आप है, अरु सदा अनुभवरूप है,तिसके प्रमादकारे तू आपको दुःखी जानता है, जब अज्ञानरूपीनिद्राते तू जागैगा, तब आपको जानैगा, अरु दुःख शोक तेरे नष्ट हो जावेंगे, सो अज्ञानरूपी निद्रा क्या है, श्रवण करु, देह इंद्रियादिक जो दृश्य हैं, तिनसाथ मिलकर आपको जानना कि, मैं हौं, यह अज्ञाननिद्रा है, इसते रहित होकार देख जो आनंदको प्राप्त होवे,अरु जेते यह पदार्थभासतेहैं सो मिथ्या हैं, जैसे बालक मृत्तिकाविषे राजा अरु सैन्य अरु हस्ती घोड़ा, कल्पता है, सो न कोङ राजा हैं, न सैन्य है, न कोऊ हस्ती घोड़ा हैं । एक मृत्तिकाही है, तैसे चित्तरूपी बालकने आत्मरूपी मृत्तिकाविषे । राजा अरु सैन्य आदिक संपूर्ण विश्व कपी है, सो मिथ्या है ॥ हे राजन् ! एक उपाय तेरेको कहता हौं सो करु, जो दुःख तेरे नष्ट हो जावें, एक वस्तुका त्याग करु, सो कौन है, अहं अभिलाषसहित जो ऊरना है, तिसका त्याग कारे जहां इच्छा है, तहां विचरु, तेरेको दुःखका स्पर्श न होवैगा, संकल्पही उपाधि है, अपर उपाधि कोऊ नहीं, जैसे मणि तृणकार आच्छादित होती है, जब तृण दूर करिये, तब मणि प्रगट