पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३२१

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( १३०२) योगवासिष्ठ । गंभीर जल होता हैं, तो चलता नहीं भासता कि कहा जाता है, तैसे गंभीर जो आत्मा है, तिसविषे संसार नहीं जनाता, कि कहाँ फुरता है, अरु संसारभी आत्माते भिन्न कछ वस्तु नहीं, आत्मास्वरूपही है, जैसे अग्निके चिणगारे अग्निते भिन्न नहीं अरु जलके तरंग जलते भिन्न नहीं अरु मणिका प्रकाश मणिते भिन्न नहीं, तैसे आत्माते संसार भिन्न नहीं, केवल आत्मस्वरूप है, ऐसे आत्माको जानिकरि शांतिवान् हो, जो तेरे दुःख नष्ट हो जावें, केवल शाँत पद आत्मा है, सो तेरा अपना आया है, अपने स्वरूपको भूलिकै दुःखी हुआ है, जब आत्माको जानैगा तब संसार भी आत्मस्वरूप भासैगा, काहेते कि आत्मस्वरूप है, आत्माते इतर वस्तु कछु नहीं, ऐसा आत्मा तेरा स्वरूप है, तिसविषे स्थित होहु ॥ ॥ हे राजन् ! यह सर्व जगत् चिदाकाशरूप है, यही भावना दृढ करु, ऐसी भावना जिसकी दृढ हैं, अरु सब इच्छा शांत हो गई हैं, तिस पुरुषको दुःख कोऊ नहीं लगता, उसने निरिच्छारूपी कवच पहिरा है । हे राजन् । अहं अर्थते रहित जो पुरुष है, सर्व जिसको शून्य हो गया है, निरालंबका आसरा किया है, सो पुरुष मुक्तिरूप हैं। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे मनुइक्ष्वाकुआख्याने सर्वत्रह्मप्रतिपाइनवर्णने नाम सप्तनवतितमः सर्गः ॥ ९७ ॥ | अष्टनवतितमः सर्गः८८, परमनिर्वाणवर्णनम् ।। मनुरुवाच ॥ हे राजन् ! यह संसार आत्माते भिन्न कछु वस्तु नहीं, जैसे जल अरु तरंग भिन्न नहीं, जैसे सूर्य अरु किरण भिन्न नहीं, जैसे अग्नि अरु चिणगारे भिन्न नहीं, तैसे आत्मा अरु संसार भिन्न नहीं, आत्मस्वरूपही है, जैसे इंद्रियोंके विषय इंद्रियों विषे रहते हैं, तैसे आत्माविषे संसार है, जैसे पवनविषे स्पंद निस्पंद शक्ति हैं, सो पवनते भिन्न नहीं, तैसे आत्माते भिन्न नहीं, आत्मस्वरूप है । हे राजन् । विषयकी सत्यताको त्यागकर केवल आत्माकी भावना करु, जो तेरे संशय