पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

ज्ञानीलक्षणविचारवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२१७ ) तौ नहीं पाता, अरु आत्मज्ञानविना शांति नहीं होती, जब आत्मज्ञान प्राप्त हुआ, तब जरा मृत्यु आदिक दुःखते मुक्त होता है, दुःख इसविषे कोऊनहीं रहता, जैसे सिंह पिंजरेते छुटा बहुरि पिंजरेते बंधनविखे नहीं पड़ता तैसे वह पुरुष अज्ञानरूपी पिंजरेविषे नहीं फँसता है राजन् ! तासे तू आत्माकी भावना कर, जो तेरे दुःख नष्ट हो जावें, अज्ञानरिकै तेरे ताई दुःख भासते हैं, अज्ञानते रहित तू सदा आनंदरूप है, आत्मा अनुभवरूप है, तिस अनुभवरूप प्रत्यकू आत्माविषे स्थित हो, जब तू आत्माविषे स्थित होवैगा, तब चेष्टा तेरेविषे इष्ट भी आवैगी, परंतु स्पर्श न करेगी, जैसी शुद्ध मणिके निकट जैसा रंग राखिये, श्वेत रक्त पीत श्याम तिसके प्रतिबिंबको ग्रहण करती है, तो भी रंग कोऊ स्पर्श नहीं करता, उसविषे कल्पित जैसे भासते हैं, तैसे तू प्रकृत आचारको अंगीकार करता हुआ तेरे ताई पाप पुण्यका स्पर्श न होवैगा ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे मनुइक्ष्वाकुसंवादसमाप्तिवर्णनं नाम ब्यधिकशततमः सर्गः ॥ १०२ ॥ त्र्यधिकशततमः सर्गः १०३. ज्ञानीलक्षणविचारवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच । हे रामजी । इसप्रकार मनु उपदेश करके तूष्णीं हो गया, तब राजाने भलीप्रकार मनुका पूजन किया, बद्र मलु भी आकाशको उड़ि ब्रह्मलोकविषे जाय प्राप्त भयो, अरु राजा इक्ष्वाकु राज्य करने लगा । हे रामजी । जैसे राजा इक्ष्वाकुने जीवन्मुक्त होकर राज्य किया है, तैसे तू भी इस दृष्टिको आश्रय कारकै विचरू ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुमने कहा जैसे राजा इक्ष्वाकु ज्ञानको पायकार राज्यचेष्टा करत भया है, तैसे तू करु, तिसविर्षे मेरा प्रश्न है, जो अधूर्व अतिशय होवै तिसका पाना विशेष है, अरु जो पूर्व कईने पाया है, तिसका पाना अपूर्व अतिशय नहीं, ताते मेरे तांई सो कहौ, जो अपूर्व अतिशय सर्वते विशेष है । वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी ! ज्ञानवान् सदा WS