पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३३८

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कर्माकर्मविचारवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १२१९) विषयते विरस होता है, अरु इंद्रियजित् होता है, भोगकी इच्छा तिसकी निवृत्त हो जाती है, स्वाभाविकही तिसके विषय निवृत्त होते हैं। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ज्ञानीलक्षणविचारवर्णन नाम ब्यधिकशततमः सर्गः ॥ १०३ ॥ शताधिकचतुर्थः सर्गः १०४. कर्माकर्मविचारवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! मायाजालका काटना महाकठिन है, यह आदिकलना जीवको भई है, जो कोऊ इसविषे सत्यबुद्धि करता हैं, सो पखेरूकी नई जालविषे फँसा हुआ निकस नहीं सकता है, तैसे अनात्म अभिमानते निकस नहीं सकता है । हे रामजी । बहुरि मेरे वचन सुन जो मेरे वचन तुझको प्रियतम लगते हैं, जैसे मेघका, शब्द मोरको प्रियतम लगता है, अरु मैं भी तेरे हितके निमित्त कहता हौं, उपदेश करता हौं, अरु ऐसा गुरु रघुकुलका कोऊ नहीं हुआ, जो शिष्यका संशय निवृत्त करै । हे रामजी । मेरा शिष्य भी ऐसा कोऊ नहीं हुआ, जो मेरे उपदेशकर न जागा होवै, सब जागे हुए हैं, इसनिमित्त मैं तप ध्यान आदिकको भी त्यागिकार तेरे ताईं जगावौंगा ताते मैं तुझको उपदेश करता हौ श्रवण करु ॥ हे रामजी ! शुद्ध आत्मा विषे जो अहंभाव हुआ है, जो कछु अहंकारकारे भासता है, सो मिथ्या” है, इसविषे सत्य कछु नहीं, अरु जो इसका साक्षीभूत ज्ञानरूप है, सो सत्य है, तिसका नाश कदाचित नहीं होता, अरु जो जो वस्तु ऊरणे, कार उपजी हैं सो सर्व नाशवंत हैं, यह बात बालक भी जानते हैं, जो सत्य है, सो असत्य नहीं होता, अरु जो वस्तु असत्य हैं, सो संत्य नहीं होती जैसे रेतते घृत निकसना असत्य हैं, कदाचित नहीं निकसता, जैसे दुर्दुरको निकास चूर्ण भी करिये, एक दुर्दुरके लाख कणका कारये 'अथवा शिलाऊपर घसाइये, जब तिस ऊपर वर्षा हुई, तब सर्व कणके दुर्दुर हो जाते हैं ॥ हे रामजी ! सो दर्डर तब उत्पन्न हुए, जब उनविषे