पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३४४

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तुरीयापदविचारवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२२५) नष्ट हो जाते हैं, अरु तीसराजो स्वस्वरूप है, सो सत्य है, तू तिसविषे । स्थित होहु ।। राम उवाच ॥ हे भगवन् ! यह तीन रूप जो तुमने जीवके कहे, तिनके मध्यविषे नाशरूप कौन है, अरु सतरूप कौन है । वसिष्ठ । उवाच ।। हे रामजी ! हाथ पाँवकार जो देह संयुक्तहै, भोग साथबलगत करी हुई सो देह स्थूलरूप है अरु जीव अपनेही संकल्पकारिकै सदा पसार रचता है, अपर चित्तरूपी देह इस कुरणे रूपसों अन्तवाहक है। सो सदा प्राणवायुके रथ ऊपर स्थित रहताहै, देह होवे, भावै न होवे ।। हे रामजी ! यह दोनों शरीर उपजते भी अरु नष्ट भी होते हैं अरु आदिअंतते रहित चिन्मात्र निर्विकल्प हैं, सो जीवका परमरूप जान, तुरीयापद है उसीते जाग्रतादिक उपजते हैं, अरु लीन होते हैं ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! मैं तीनोंको जानता हौं, एक जाग्रत् है, निद्भाते रहित, जिसविषे इंद्रियाँ अरु चार अंतःकरण अपने अपने विषयको ग्रहण करते हैं, अरु दूसरा स्वप्न है, तहां भी विषयको जाग्रत्की नई संकल्प कर विषय विना ग्रहण करते है, अरु तीसरा तहाँ इंद्रिय अपने विषयते रहित होतीहै, अरु जडता आतीहै, भासता कछु नहीं, शिलाकी नई जडता तमोगुण आता है, सो सुषुप्ति हैं, यह तीनोंको मैं जानता हौं, तुरीया अरु तुरीयातीत सो कृपा कारे तुम कहो कि, किसको कहते हैं । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! अपना होना अनहोना दोनों को त्यागिकार पाछे केवल तुरीयापद रहता है, सो शांतपद है, अरु निर्मलहै ॥ हे रामजी ! तुरीया जाग्रत नहीं, काहेते जो जाग्रत् संकल्पजाल हैं, इंद्रियोंकारिकै रागद्वेष होता हैं, अरु तुरीया स्वप्न अवस्था भी नहीं, काहेते कि, स्वप्न भ्रमरूप होता है, जैसे जेवरीविषे सर्प भासता है, सो अपरका अपर संकल्प होता है, अरु तुरीयासुषुप्ति भी नहीं, काहेते जो अत्यंत जडता है अरू तुरीया चेतनरूप है, उदासीन है, अरु शुद्ध है, जाग्रत् स्वप्न सुषुप्तिते रहित है, जीवन्मुक्त तुरीयापदविषे स्थित रहता है । हे रामजी ! जो तुरीयापदविषे स्थित है, तिसको यह स्थित भी है, जगवसों भी शतिरूप हो जाता है, अरु अज्ञानीको वज्रसारवत् दृढ़ है, अरु ज्ञानी सदा शतिरूप है, जो तीनों