पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३५६

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बलैकत्वप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२३७ ) प्राप्ति होगी, अरु एक कहते हैं, कछु नहीं, तिनको चिरकालकर जब री, तब आत्मपदको प्राप्त होवेंगे ॥ हे रामजी । तिनके निमित्त विधि अरु निषेध कही है, कि इस शुभ कर्मको अंगीकार करो, अरु कशुभ कर्म त्यागौ, तिसकर जब अंतःकरण शुद्ध होवेगा तब आत्मपकी प्राप्ति होवैगी, इसनिमित्त विधिनिषेध कही है, जो विधिनिषेध शास्त्र न कहै तौ बडा छोडेको भोजन कर लेवे, इसनिमित्त शास्त्रका दंड है ॥ हे रामजी ! स्वरूपते किसीको उपदेश नहीं, भ्रमविषे उपदेश है, जिस पुरुषका भ्रम निवृत्त हुआ है, सो मोहविषे बहुरि नहीं डूबता, जैसे जलविषे लँबा नहीं डूबता, तैसे ज्ञानवान् संसार अज्ञानविषे नहीं डूबता, अरु जिसका चित्त वासनाकार आवरा हुआ संसरता है, तिसको इस संसारते निकसना कठिन है, जैसे उजाड़का कूआ होता है, तिसविषे कोऊ गिरै, तौ निकसना कठिन होता है, जैसे चित्त साथ मिलकर संसारते निकसना कठिन होता है ॥ हे रामजी ! इस चित्तको स्थिर कर, जो दुःख तेरे मिटि जावें, अरु सत्ता समानपदको प्राप्त होवै ॥ हे रामजी ! जिसको आत्माका साक्षात्कार हुआ है, अरु अनात्मविषे अहंप्रत्यय निवृत्त भया है, सो पुरुष जो कछु करता है, तिसकार बंधायमान नहीं होता, सदा अकत आपको देखता है, अरु जिसकी अहंप्रत्यय अनात्मविषे हैं, सो पुरुष करै तौ भी करताहे अरु जो न करै तौ भी करता है । हे रामजी ! जो ज्ञानी शुभ कर्म करता है तौ शुभ कर्म करता हुआ स्वर्गको प्राप्त होताहैं, अरु अशुभ कर्म करनेसों नरकको प्राप्त होता है, अरु जो शुभ कर्मको त्यागता है, तो भी नरकको प्राप्त होता है, काहेते कि अनात्मविषे आत्माभिमान है, ताते बुद्धिइंद्रियोंको मनकारि निग्रह करु, अरु कमइंद्रियोंकार चेष्टा करु, देखने सुननेसँघनेते मैं तुझकोवर्जन नहीं करता,यही कहता हौं कि, अनात्मविषे अभिमानको त्याग, जब अनात्माभिमानको त्यागैगा, तब शांतपदको प्राप्त होवैगा, जहां तेरा चित्त कुरैगा, - तहां आत्माही भासैगा, आत्माते इतर कछु न भासँगा, ताते चित्तको त्याग, चित्त कहिये अहंभाव, अहंभावको त्यागिकार आत्मपदविषे स्थित होहु,