पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३७२

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सृष्टिनिर्वाणैकताप्रतिपादनवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (१२५३) गंधर्वनगर स्वप्नसृष्टि भ्रमरूप हैं, तैसे यह जगत् भ्रमरूप है, सब जीवकी अपनी अपनी सृष्टि है, परस्पर अदृष्ट हैं, उसकी सृष्टि वह नहीं जानता, कहुँ उदय होती भासती है, कहूं लय हो जाती - है, जैसे मूर्ख अपर देशको जाता है, तैसे देहको त्यागिकार परलोकको जाता है, अरु स्वरूपविषे आना जाना अहं त्वं कल्पना कोऊ नहीं केवल सत्तामात्र अपने आपविषे स्थित है, जगत् भी वही है ॥ हे रामजी ! यह विश्व आत्मस्वरूप है, जैसे मणिका चमत्कार होता है, तैसे विश्व आत्माका चमत्कार है, अरु जो कछु तेरे ताईं भासताहै, सो आत्माही है, आत्माविना आभास नहीं होता, जैसे इश्वविषे मधुरता होती है, अरु मिरचविषे तीक्ष्णता होती है, वैसे आत्माविषे विश्व है, जो कछु देखता है, श्रवण करता है, जो स्पर्श करै, सुगंध लेवे, सो सर्व आत्माही जान, अथवा जो इनके जाननेवाला है, अनुभवरूप, तिसविषे स्थित होहु, इंद्रियां अरु विषयको त्यागिकार अनुभवरूपविषे स्थित होहु ॥ हे रामजी । यह विश्व संवितरूप है, अरु संवितही विश्वरूप हैं, जब संवित बहिर्मुख होकार रस लेती हैं, तब जाग्रत्को देखती है, जब अंतर्मुख होकार रस लेती है, तब स्वप्न होताहै, जब शांत हो जाती है,तब सुषुप्ति होती है, संसारको सत्य जानिकार जो रस लेतीहै, तब जाग्रतस्वम अरु सुषुप्ति अवस्था होती है, अरु जब संवित्ते रसकी सत्यताजानिरहे। तब तुरीया पद होता हैं, जो इसका जानना फुरता है, यह पदार्थ है, यह नहीं, जब यह नष्ट होवै तब तुरीया पद है ॥ हे रामजी ! यह विश्व फ़रनेमात्र है, जब फुरना नष्ट होवै तब विश्व देखी नहीं जाती, जैसे स्वप्न देशकाल पदार्थ जागेते मिथ्या होते हैं, तैसे यह जगत् भी मिथ्या है, अरु जीव जीव प्रति जो अपनी२ सृष्टि होती है, तिसविषे आप भी कछु बनि पड़ता है, ताते हुःखी होताहै, जब इसअहंकारको त्यागिकार अपने स्वरूपविषे स्थित होवै, तब विश्व कहूँ नहीं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सृष्टिनिवर्णिकताप्रतिपादनं नाम शताधिकपंचदृशः सर्गः ॥ ११५ ॥