पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३७७

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(१३५८ ) योगवासिष्ठ । तैसे अनात्मविषे अहंप्रतीतिकारकै आपही दुःख पाताहैं ॥ हे रामजी ! आपही संसारी होता है, आपही ब्रह्म होताहै, जब दृश्यकी ओर फुरता है, तब संसारी होता है, जब स्वरूपकी ओर आता हैं, तब ब्रह्म आत्मा होता है, ताते जो तेरी इच्छा होवै सो करु, जो संसारी होनेकी इच्छा - होवै तौ संसारी होउ, अरु जो ब्रह्म होनेकी इच्छा होवैतौ ब्रह्म होउ, अरु जो मेरेसों पूछ तौ दृश्य अहंकारको त्यागिकार आत्माविषे स्थित होड, विश्व भ्रममात्र है, वास्तव कछु नहीं, यही पुरुषार्थहै कि, संकल्पके साथ संकल्पकोकाटे, जब बाह्यते अंतर्मुख हुआ, तब ब्रह्मही भासैगा, हश्यकी कल्पना मिटिजावैगी, काहेते, जो आगे भी नहीं । हे रामजी ! जो सत् वस्तु आत्मा है, अनेक यत्न करिये तो नाश नहीं होता, अरु जो असत्य अनात्मा, तिसके निमित्त यत्न करिये तो सत् नहीं होता; जो सत् वस्तु है, तिसका अभाव कदाचित् नहीं,अरु जो असत् है, तिसका भाव नहीं होता, असत् वस्तु तबलग भासती है, जबलग तिसको भली प्रकार नहीं जाना, जब विचार कर देखिये तब नाश हो जाती है, आविद्यक पदार्थ विद्याकरि नष्ट हो जाते हैं, जैसे स्वप्नका सुमेरु पर्वत सत्य होवै तौ जाग्र विषे भी भासै, ताते है नहीं, जो जाग्रत्ते नष्ट हो जाता है, तैसे यह संसार जो तुझको भासता हैं, सो स्वरूपके ज्ञानते नष्ट हो जावैगा, अरु जो हमते पूछतौ हमको आत्माते इतर कछु नहीं भासता, सर्व आत्माही है, यह भी नहीं, जो यह जीव अज्ञानी है, किसी प्रकार मोक्ष होवै, न हमारे ताई ज्ञानसाथ प्रयोजन है, न मोक्ष होनेसाथ प्रयोजन है, काहेते कि, हमको तो सर्व आत्माही :भासता हैं ॥ हे रामजी ! जबलगू चेतन है तबलग मरता है अरु जन्म भी पाता है, जब जड होता है तब शांतिको प्राप्त होता है, अरु मुक्त होता है, चेतन कहिये दृश्यकी ओर फुरना, इसीकर जन्ममरणके बंधन में आता है, जब दृश्यके फुरणेते जड़ हो जावै, तब मुक्त होवै, इसका होनाही दुःख है, न होना मुक्ति है, अहंकारका होना बंधन है, अहंकारका न होना मुक्ति है, ताते पुरुषप्रयत्न यही है कि, अहंकारका त्याग करना, अरु चेतन ब्रह्म घन अपने आपविषे स्थित होना, जिसने संसारकी सृत भावना है; तिसको संसारही है। जड हो जावे, तब है,अहंकारका तने ब्रह्म घन अददी है।