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जीवन्मुक्तिनिश्चयोपदेशवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

सदा शांतरूप है, अरु जैसे निश्चय ब्रह्माको है, जो बाह्य राग द्वेष दृष्टि आता है, अरु अंतर रागद्वेष कछु नहीं जैसे निश्चय बृहस्पति देवताके गुरुका है, अरु जैसे निश्चय चंद्रमा अरु अग्निका है, जैसे निश्चय नारद, पुलह, पुलस्त्य, अंगिरा, भृगु, शुकदेवका है, और भी ऋषीश्वर, मुनीश्वर ब्राह्मणका है, क्षत्रियादिकका ज्ञानज्ञेयका निश्चय है, सो तुझको प्राप्त होवे॥ राम उवाच॥ हे ब्राह्मण! जिस निश्चय करिकै बुद्धिमान् विशोक होकरि स्थित भये हैं, सो मुझको कहौ॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! जैसे संपूर्ण ज्ञानवान‍्का निश्चय है, अरु व्यवहारविषे सम रहेहैं, सो सुन, विस्ताररूप जेता कछु जगत‍्जाल तुझको भासता है, सो निर्मल ब्रह्मसत्ता अपने महिमाविषे स्थित है, जैसे तरंग समुद्रविषे स्थित होते हैं, अरु नानाप्रकार उत्पन्न होते हैं, सो एक जलरूप हैं, जलते इतर कछु नहीं, तैसे जेते कछु पदार्थजाल भासते हैं, सो सब ब्रह्मरूप हैं, जो ग्रहण करनेवाला है, सो भी ब्रह्म है, अरु जिसको भोजन करता है सो भी ब्रह्म है, मित्र भी ब्रह्म है, शत्रु भी ब्रह्म है, ब्रह्मही अपने आपविषे स्थित है यह निश्चय ज्ञानवान‍्को सदा रहता है, बहुरि कैसा है, ब्रह्मको ब्रह्म स्पर्श करता है, तब किसको स्पर्श किया॥ हे रामजी! जिनको सदा यही निश्चय रहता है, तिनको रागद्वेष कछु दुःख नहीं दे सकते, ब्रह्मही ब्रह्मविषे फुरता है, भावरूप भी ब्रह्म है, अभावरूप भी ब्रह्म है, इतर कछु नहीं. बहुरि रागद्वेषकलना कैसे होवै, ब्रह्मही ब्रह्मको चेतता है, ब्रह्मही ब्रह्मविषे स्थित है, ब्रह्मही अहं अस्मि है, ब्रह्मही सम है, ब्रह्मही अंतर आत्मा है, घट भी ब्रह्म है, पट भी ब्रह्म है, ब्रह्मही विस्तारको प्राप्त भया है॥ हे रामजी! जब सर्वत्र ब्रह्मही है, तब राग विराग कलना कैसे होवै, मृत्यु भी ब्रह्महै, शरीर भी ब्रह्महै, मरता भी ब्रह्म है, मारता भी ब्रह्म है, जैसे जेवरीविषे सर्प भ्रमकरिकै भासता है, तैसे आत्माविषे सुखदुःख मिथ्या है, भोग भी ब्रह्म है, भोगनेवाला भी ब्रह्म है, भोक्ता देह भी ब्रह्म है, सर्वत्र ब्रह्मही है, जैसे समुद्रविषे तरंग उपजते अरु मिट जाते हैं, सो जलते इतर कछु नहीं, तैसे शरीर उपजते अरु मिट