पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३९

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योगवासिष्ठ।

जाते हैं, सो ब्रह्मही ब्रह्मविषे स्थित है॥ हे रामजी! जलके तरंग जो मृत्युको प्राप्त होते हैं, सो क्या हुआ, वह तौ जलही है, तैसे मृतक ब्रह्मने जो देह मृतक ब्रह्मको मारा, तब कौन मुआ, अरु किसने मारा, जैसे एक तरंग जलते उपजा, अरु दूसरे तरंगसाथ मिलि गया, दोनों इकट्ठे होकरि मिटि गये, सो जलही जल है, तहां मैं दूसरा कछु नहीं, तैसे आत्माविषे जगत् है; सो आत्माही अपने आपविषे स्थित है, तेरा मेरा भिन्न कछु नहीं, जैसे स्वर्णविषे भूषण होते हैं, जलविषे तरंग होते हैं, सो अभेदरूप हैं, तैसे ब्रह्म अरु जगत‍्विषे भेद कछु नहीं॥ हे रामजी! जो पुरुष यथार्थदर्शी है, तिनको सदा यही निश्चय रहता है अरु जिनको सम्यकूज्ञान नहीं प्राप्त भया, तिनको विपर्ययरूप औरका और भासता है, वास्तवते सदा एकरूप है, परंतु ज्ञान अरु अज्ञानका भेद है, जैसे जेवरी एक होती है, परंतु जिसको सम्यक‍्ज्ञान होता है, तिसको जेवरी भी भासती है, अरु जिसको सम्यक‍्ज्ञान नहीं होता, तिसको सर्प हो भासता है, तैसे जो ज्ञानवान पुरुष हैं, तिसको सब ब्रह्मसत्ता भासती है अरु जो अज्ञानी है, तिनको जगत‍‍्‍रूप भासता है, तिसको नानाप्रकारका जगत् दुःखदायक होता है, अरु ज्ञानवान‍्को सुखरूप है, जैसे अंधको सर्व ओर अंधकार भासता है, अरु चक्षुवान‍्को प्रकाशरूप होता है, तैसे सर्व जगत् आत्मस्वरूप है, परंतु ज्ञानीको आत्मसत्ता सुखरूप भासती है, अज्ञानीको दुःखदायक है, जैसे बालकको अपने पराछाईंविषे वैतालबुद्धि होती है, तिसकरि भयमान होता है, अरु बुद्धिमान निर्भय होता है, तैसे अज्ञानीको जगत् दुःखदायक है, ज्ञानीको सुखरूप है, अरु जब मेरा निश्चय पूछे, तब ऐसे है, मैं सर्व ब्रह्म हौं, नित्य शुद्ध सर्वविषे स्थित हौं, न कोऊ विनशता है, न उपजता है, जैसे जलविषे तरंग है सो न कछु उपजा है, न विनशता है, जलही जल है, तैसे भूत भी आत्मविषे है, जगत् भी आत्मरूप है, आत्मा ब्रह्मही अपने आपविषे स्थित है, शरीरके नाश हुए आत्माका नाश नहीं होता, मृतरूप भी ब्रह्म है, शरीर भी ब्रह्म है, ब्रह्मही अनेकरूप होकार भासता है, ब्रह्मते भिन्न कछु शरीरादिक