पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३९४

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पंचमभूमिकावर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२७५ ) होती है, अरु जगदको मिथ्या भावनामात्र जानना सो स्वप्न कहते हैं, जाग्रत् अरु स्वप्न जिसविषे लय हो जावै, सो सुषुप्ति है, जो ज्ञानभावकारिकै भेदकी शांति हो जावै, जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति तीनों का अभाव होवे, ऐसी जो निर्मल स्थिति है, सो तुरीया है । हे रामजी । अज्ञानी जीव संसारको वर्षाकालके मेघकी नाई देखते हैं, जो तिनको दृढ होकर भासता है, अरु जिसको चतुर्थ भूमिका प्राप्त भई है, सो शरत्कालके मेघकी नई संसारको देखता है, अरु जिसको पंचम भूमिका प्राप्त भई है, सो शरत्कालके मेघ नष्ट हुएकी नई देखता है; जैसे निर्मल आकाश होता है, तैसे उसको निर्मल भासता है, सो तीनोंका वृत्तांत सुन, अज्ञानी जगत्कों जाग्रतुकी नई देखता है, अरु दृढसत्यता जगतुकी तिसको भासती है, तिसकरि रागद्वेष उपजता है, अरु चतुर्थ भूमिकावाला ऐसे देखता है, जैसे शरत्कालका मेघ बर्षांते रहित होता है अरु जैसे स्वकी सृष्टि होती है, तैसे तिसको सत्यता जगत्की नहीं भासती, काहेते जो स्मृति तिसको स्वपकी होती है, स्वप्नवत् देखता है, ताते उसको रागद्वेष नहीं उपजता है, अरु पंचम भुमिकाप्राप्तिवाला जगत्को सुषुप्तिकी नई देखता है, जैसे शरत्कालका मेघ नष्ट हुआ बहुरि नहीं दीखता, तैसे उसको संसारका भान नहीं होता, अरु चेष्टा उसकी स्वाभाविक पड़ी होती है, जैसे कमल स्वाभाविकही खुलता अरु मुँदि जाता है, तैसे तिसको यत्न कछु नहीं, चेष्टाविषे जैसा प्रतियोगी तिसको स्वाभाविक आय प्राप्त हुआ सो करता है, जैसे कमलके खुलनेका प्रतियोगी सूर्य हुआ तब खुलि गया, अब जब खुदनेका प्रतियोगी रात्रि भई तब हुँदि जाता हैं, उसको खेद कछु नहीं, तैसे तिस पुरुषकी अहंममताते रहित स्वाभाविक चेष्टा होती है ॥ है रामजी । अहंता ममतारूपी जाते वह पुरुष सुषुप्त हो जाता है, अरु संपूर्ण भावरूप जो शब्द अरु अर्थ हैं, तिनका तिसको अभाव हो जाता है, अशेष शेषको मनन नष्ट हो जाता, पशु, पक्षी, मनुष्य, देवता भला बुरा इत्यादिक भिन्न भिन्न पदार्थकी भावना तिसको नहीं रहती, द्वैतकलना नष्ट हो जाती है, एक ब्रह्मसत्ताही भासती है, तिसको संसार नहीं