पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३९९

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(१२८०) । योगवासिष्ठ । शताधिकषड़विंशतितमः सर्गः १२६. सप्तमभूमिकालक्षणविचारवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इसते अनंतर जब सप्तम भूमिका पुरुषको प्राप्त होती है, तब आपको आत्माही जानता है, अरु भूतका ज्ञान जाता रहता है, केवल आत्मत्वमात्र होता है, दृश्यका ज्ञान नहीं रहता, अरु यह भी ज्ञान नहीं रहता कि, विश्व मेरे आश्रय फुरती है, देहसहित होवै अथवा विदेह होवे, उसको आत्माते उत्थान कदाचित् नहीं होता, जैसे आकाश अपनी शून्यताविषे स्थित है, तैसे आत्मस्वरूपवित्रे स्थित है, अरु चेष्टा भी स्वाभाविक होती है, जैसे बालक पींधूडेविषे होता है, तिसके अंग स्वाभाविक हलते हैं, तैसे उसकी चेष्टा खान पान आदिक स्वाभाविक होती है, जैसे काष्ठकी पुतली लागेकरिकै चेष्टा करती है, तैसे प्रारब्धवेगके तागेकार उसकी चेष्टा पडी होती है, अपनी इच्छा उसको कछु नहीं रहती ॥ हे रामजी ! जैसी अवस्थाको सप्तम भूमिकावाला प्राप्त हुआ हैं, सो आपही जानता है, इतर कोऊ जान नहीं सकता; जिसका चित्त शान्त है, अरु जिसका चित्त सत्पद्को प्राप्त हुआ है, सो भी नहीं जान सकता, जिसको वह पद प्राप्त हुआ है। सोई जाने । हे रामजी ! जीवन्मुक्तका चित्त सुत्पको प्राप्त हुआ है, अरु तुरीयापदविषे स्थित है, इसका चित्त निर्वाण हो गया है, तुरीयातीत पदको प्राप्त भयो है, अरु विदेहमुक्त है, तिसको अहंभावका उत्थान कदाचित् नहीं होता, सतरूप है, अरु असत्की नई स्थित है ॥. हे रामजी ! वह पुरुष तिस पदको प्राप्त हुआ है, जिसकी वाणीकी गम नहीं, परंतु कछु कहता हौं, सो पद शुद्ध है, अरु निर्मल है, अद्वैत है, अरु चेतन ब्रह्म है, कालका भी काल भक्षण करनेहारा केवल चिन्मात्र है, अरु ज्योंका त्यों अच्युत पद है, तिस पदको पायकार ऐसे होता है, जैसे वस्रके अपर मूर्ति लिखी है, तैसे उत्थानते रहित है, अहं ब्रह्मको उत्थान भी नहीं रहता ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सप्तमभूमिकालक्षणविचारवर्णन नाम शताधिकषविंशतितमः सर्गः ॥ १२६ ॥