पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४१८

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विद्याधरवैराग्यवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६, (१२९९) मेरेताँई लूट लिया, है, अरु इंद्रियारूपी सर्पिणी है, अरु तृष्णारूपी विक्ष हैं, तिसकार इनविषे सारी विश्व मोहित दीखती है, कोऊ विरले इनते वचे होवेंगे, यह इंद्रियां दुष्ट हैं, अपने अपने विषयको लेती हैं। अपको देती नहीं, तुच्छ अरु जड हैं, अनहोतियोंने डुःख दिया है, जैसे विजलीका चमत्कार होता है, वहुरि छपन हो जाती है, तैसे इंद्रियोंके सुख क्षणमात्र दिखाई देते हैं, वहुरि छपन हो जाते हैं, जवलग इंद्रिय 'अरु विषयका संयोग है, तवलग सुख भासता है, जब इनका वियोग हुआ, तब दुःख उत्पन्न होता है, काहेते जो तृष्णा रहती है। एक सैन्य है, तिसविषे इंद्रियोंके भोग उन्मत्त हस्ती हैं, तिसावर्षे तृष्णारूपी जंजीर हैं, अरु इंद्रियारूपी रथ हैं, अरु नानाप्रकारके विषय तिसमें घोडे हैं अरु संकल्पविकल्परूपी खङ्ग हैं, तिसके धारनेहारा अहंकार है, अरु यह जो क्रिया होती हैं, अहंकारसहित, सो शस्त्रोंके समूह हैं ॥ हे सुनीश्वर ! जिस पुरुषने इस सैनाको नहीं जीती, सो मोहरूपी अंधके कूपविषे गिरा है, अरु कष्ट पाता है, अरु जिसने जीती है, सो परम सुखको प्राप्त होता है । हे मुनीश्वर ! यह इंद्रियां कैसी हैं, जो भोगकी इच्छारूपी खाईविषे अहंकाररूपी राजाको डारि देती हैं, अरु निक्रसना कठिन हो पड़ता है जिस पुरुषने इनको जीता है, तिसकी त्रिलोकीविर्षे जय होती है, अरु जिसने नहीं जीता, सो महादीनताको प्राप्त होता है, अरु जन्मजन्मांतरको पाता है, इन इंद्रियोंविषे रजोगुण अरु तमोगुणे रहता है, तवलग दाहको देती हैं, जवलग रज, तम वृत्ति है यह भी * मनकी वृत्ती है, जब इनका अभाव होवे, तब शांति प्राप्त होवै, यह शोधि देखा है, जो इंद्रियां तपकर भी वश नहीं होती हैं, न, यज्ञकरि, न व्रतकार, न तीर्थकर वश होती हैं, न किसी औषधकार, न किसी “अपर उपायकारकै वश होती हैं, एक संतके संगकार निवासी होवें, तव वश होती हैं, तोते मैं तुम्हारी शरण हौं मेरे तांई आपदाळे समुद्रते कृपा करके निकासौ जो मैं वूडता हौं, अरु. यह संसारसमुद्रविषे दीन हौं, तात्ते तुम्हारी शरणको प्राप्त भया हौं, तुम पार करौ, अरु तुम्हारी महिमा अंतने भी सुना है, तुम कृपा करी ॥ हे भगवन् ! जो कोऊ आयुर्वल