पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४१९

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(१३००) योगवासिष्ठ । पर्यंत विषयके दिव्य भोग भोगता रहै अरु इनते शांति चाहै तौ न प्राप्त होवैगी, बड़े सुख सो दुःख समान हैं, अरु आकाशविषे उडनेवाले भी हैं, तो भी इंद्वियोंको वश नहीं कर सकते, ताते दीनदुःखी रहते हैं, अरु ऐसा भी कोऊ पुरुष होवे, जो फूलकी नई महामत्त हस्तके दुतको चूर्ण करै, तौ भी मानता हूँ, परंतु इंद्रियोंको अंतर्मुख करना महाकठिन है ॥ है मुनीश्वर ! एता काल मैं जलता रहा हौं, महाअध्यात्म तापविषे मैं दुःखी हौं, तुम कृपाकर निकासहु मैं तुम्हारी शरण हौं । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विद्याधरवैराग्यवर्णनं नाम शताधिकैकत्रिशत्तमः सर्गः ॥ १३३ ॥ शताधिकद्वात्रिंशत्तमः सर्गः १३२. संसाररूपीवृक्षवर्णनम् ।। भुशुण्ड उवाच ॥ हे वसिष्ठजी । जव इसप्रकार विद्याधरने मेरे आगे प्रार्थना करी, तव में कहा ॥ हे अंग, तू धन्य हैं, अव तू जागा है, जैसे कोऊ शुरुष अंधे कुँएविषे पड़ा होवे, अरु तिसकी इच्छा हुई कि निकसौं तौ जानिये कि, निकसैगा, ताते तू धन्य है ॥ हे विद्याधर ! मैं उपदेश करता हौं, सो तुम अंगीकार करियो, अरु सत् जान जो मेरे वचनोंविषे संशय नहीं करना कि, यह उपदेश ऐसे क्यों किया जो सबके सार वचन हैं, सो तेरे तांई कहता हौं, अरु मैं जानता हौं कि,तू शीग्रही अंगीकार करेगा, जैसे उज्वल आरसी यत्नविना प्रतिबिंबको ग्रहण करती है, तैसे मेरे वचन तेरे अंतर प्रवेश करेंगे, जिसका अंतःकरण शुद्ध होता है, तिसको संत उपदेश करौ अथवा न करो, उनको सहज वचनहीं उपदेश हो लगते हैं, जैसे शुद्ध आदर्श प्रतिविचको यत्नविना ग्रहण करता है, वैसे मेरे वचनोंको तू धारि छेवैगा, तव तेरे दुःख नाश हो जावेंगे, अरु परमानंदको प्राप्त होवैगा, जो अविनाशी सुख है। अरु आदिअंतते रहित है, अरु इंद्रियोंके सुख आगमापायी हैं, सो दुःखके तुल्य हैं, इनते रहित 'परमसुख है ॥ हे विद्याधरविषे श्रेष्ठ ! जो कछु,