पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

संसाराडेवरवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१३०१ ) तेरे ताई सुखरूप दृष्ट आवै, तिसका त्याग करु, तब परम सुख तेरेतई प्राप्त होवैगा, अरु सर्व दुःखका मूल अहंभाव है, जब अहंकार नाश हुआ, तब शांति होवैगी, संसारका वीज अहंकार है, अरु संसार मृगतृष्णाके जलवत है, अणहोता भासता है, तबलग संसार नष्ट नहीं होता, जवलग अहंतारूपी संसारका बीज है जव अर्हतारूपी वीज नष्ट होजावै, तब संसार भी निवृत्त होजावै,अरु संसाररूपी वृक्ष है,सुमेरु आदिक पर्वत तिसके पत्र हैं, तारागण तिसके कली फूल हैं, अरु सप्त समुद्र तिसका रस है, अरु जन्ममरण तिसकेसाथ वल्ली हैं,अरु सुखदुःख तिसके फल हैं, अरु आकाश दिशा पातालको धारिकै स्थित हुआ है, अरु अहंकाररूपी 'पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ है, अहंकार तिसका बीज है, अरु मिथ्या भ्रममात्र उत्पन्न हुआ है, असत् अरु सत्की नई स्थित हुआ है, ताते अहंकार वीजका नाश करौ, निरहंकाररूपी अग्निकार इसको जलाव, तब अत्यंत अभाव हो जावैगा, यह भ्रम करिकै भयको देता है, जैसे जेवरीविषे सर्पभ्रम भयको देता है, ताते निरहंकाररूपी अग्निकार इसका नाश करौ ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे संसाररूपीवृक्षवर्णनं नाम शताधिकद्वात्रिंशत्तमः सर्गः ॥ १३२॥ शताधिकत्रयस्त्रिशत्तमः सर्गः १३३. = = संसाराडेवरवर्णनम् । | शुगुंड उवाच ॥ हे विद्याधर ! यह ज्ञान जैसे उत्पन्न होता है, सो श्रवण करु, ब्रह्मविद्या शास्त्र तिसको श्रवण करना, अरु आत्मविचार करना, तिसकरि ज्ञान उपजता है, तिस आत्मज्ञानरूपी अग्निकार संसाररूपी वृक्षको जलावहु, अरु आगे भी है नहीं, अणहोता उदय हुआ है। मनके संकल्पकार हुएकी नई स्थित है, जैसे पत्थरविषे शिल्पी कल्पती है कि, एती पुतलियाँ निकसँगी, सो हुई कछु नहीं, तैसे मनरूपी शिल्पी यह विश्वरूपी पुतलियाँ कल्पता है, जब मनका नाश करौंगे,