पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

वर्णनम् । अपर आका विद्याधर विषे जो (१३०८) योगवासिष्ठ । शताधिकसप्तत्रिंशत्तमः सर्गः १३७. इंद्रोपाख्याने त्रसरेणुजगत्वर्णनम् ।। सुण्ड उवाच ॥ हे विद्याधर | जैसे कोऊ कलना करै कि, आकाशविर्षे अपर आकाश स्थित है, तो मिथ्या प्रतीति है, तैसे आत्माविषे जो अहंकार ऊरणा है, सो मिथ्या है, जैसे आकाशविषे अपर आकाश कछु वस्तु नहीं, परमार्थतत्त्व ऐसा सुक्ष्म है, जिसविषे आकाश भी स्थूल है, केवल आत्मत्वमात्र है, अरु स्थूल ऐसा है, जिसविषे सुमेरु आदिक भी सूक्ष्म अणुरूप हैं, द्वैतते रहित चेतन केवल शाँतरूप है। गुण अरु तत्त्व क्षोभते रहित है ॥ हे देवपुत्र ! अपना अनुभवरूप चंद्रमा है, अरु अमृतक स्रवणेहारा है ॥ हे अंग ! जेते कछु दृश्य पदार्थ भासते हैं, सो हुए कछु नहीं हैं, हे अंग ! आत्मरूप अमृतकी भावना करु, जो तू जन्ममृत्युके बंधनते मुक्त होवै, जैसे आकाशविषे दूसरे आकाशकी कल्पना मिथ्या है, तैसे निराकार चिदात्माविषे अहं मिथ्या है, जैसे आकाश अपने आपविषे स्थित है, तैसे आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, अहं त्वं आदिकते रहित है, जब अहंका उत्थान तिसावर्षे होता है, तब जगत् विस्तार होता है, जैसे जलविषे द्रवताकर तरंग पसरते हैं, तैसे अहंकार जगत् पसरता है, अरु जैसे वायु ऊरणेतेरहित हुई आकाशरूप हो जाती है, तैसे संवत् उत्थान अहंते राहत हुई, तब आत्मरूप हो जाती है, जगद्धम मिटि जाता है, ऊरणेकार जगत् फुरि आया है, वास्तव कछु नहीं, ज्ञानवान्नको आत्माही भासता है, देश, काल, बुद्धि, लज्जा, लक्ष्मी, स्मृति, कीर्ति सव आकाशरूप हैं, ब्रह्मरूपी चंद्रमाके प्रकाशकार प्रकाशते हैं, जैसे बादलोंके संयोगकरि आकाश धूम्रभावको प्राप्त होता हैं, तैसे प्रमादकारिकै संविद् दृश्यभावको प्राप्त होती है। परंतु अपर कछु नहीं होती, जैसे तरंगकरिके जल अपर कछु नहीं होता, जैसे काष्ठ छेदेते अपर कछु नहीं होता, तैसे द्वष्टाते दृश्य भिन्न नहीं होती, जैसे केलेके स्तंभविषे पत्रविना अपर कछु नहीं निकसता, पत्र शून्यरूप है, तैसे क्रूररूप जगत् भासता है, परंतु आत्माते ।