पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४३९

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(१३२०) ... योगवासिष्ठ । रहनेका स्थान कौन है सो कहौ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! शुद्ध जो परमात्मतत्त्व निर्विकल्प चिन्मात्र पद है, तिसविषे चैत्योन्मुखत्व हुंआ जो मैं हौं, ऐसे जो चित्कला ज्ञानरूप फुरी, अरु तिसको चित्तका संबंध हुआ, जो चित्तका संयोग भया, तिसका नाम जीव है, सो जीव न सूक्ष्म है, न. स्थूल है, न शून्य है, न अशून्य है, न थोड़ा है, न बहुत है, केवल आत्मत्वमात्र है, अरु शुद्ध है, न अणुरूप है, न स्थूल है, अनंत चेतन आकाशरूप है, तिसको जीवकार कहते हैं, स्थूलका स्थूल वही है, सूक्ष्मका सूक्ष्म वही है, अनुभव चेतन सर्वगतरूप सो जीव हैं, तिसविषे वास्तव शब्द कोऊ नहीं, जो कोऊ शब्द है, सो प्रतियोगीसाथ मिलकार हुआ हैं, अरु जीव अद्वैत है, जो अद्वैत हैं, तिसका प्रतियोगी कैसे होवे, यह जीवका स्वरूप है, चैत्यके संयोगकार जीव हुआ है, अरु जीवका अधिष्ठान परमात्मतत्त्व है, चेतनआकाश है, निर्विकल्प हैं, चैत्यते रहित शुद्ध चेतन है, तिसविषे जो संवित फुरी है, तिसका नाम जीव है, सो सूक्ष्मते सूक्ष्म है, स्थूलते स्थूल, सर्वका बीज है, इसका नाम विराट् कहते हैं, अरु शरीर तिसका मनोमय है, आदि जो परमात्मतत्त्वते कुरा हैं; अरु अपर अवस्थाको नहीं प्राप्त भया, अपर अवस्था कहिये परिच्छिन्नताको नहीं प्राप्त हुआ, आपको सर्वं आत्मा जानता है, इसका नाम विराट् है, प्रथम शरीर उसका मनोमात्र अरु शुद्ध प्रकाशरूप है, रागद्वेषरूपी मलते रहित है, अरु अनंत आत्मा है, सर्व मेन अरु कम अरु देहोंका बीज है, अरु सबविषे व्याप रहा है, सब जीवका अधिष्ठाता है, तिसीके संकल्प कार यह जीव रचे हैं, पंच ज्ञानइंद्रियां अरु अहंकार मन अरु संकल्प इन आठौंके-आकार घारे हैं, अरु आपही ग्रहण किये हैं, परमार्थरूपको त्यागि फुरणेते जो आकार उत्पन्न हुए हैं, तिसको ग्रहण किया, इसका नाम पुर्यष्टका है, बहुरि इन इंद्रियोंके छिद्र रचता भया, स्थूलरूप रचिकारि तिनविषे आत्मप्रतीति करत भयो, जैसे पुरुष शयन करता है, अरु जाग्रत शरीरका त्याग कर स्वप्नशरीरका अंगीकार करता है, तैसे शुद्ध चिन्मात्र निर्विकार अद्वैत स्वरूपको त्यागिकार वासनामय शरीरका अंगीकार किया हैं, अरु वास्तव स्वरूपका कछु त्याग नहीं किया,