पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४४०

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विराटात्मवर्णन-निर्वाणप्रकरण - (१३२३,) स्वरूपते वह गिरा नहीं, शुद्धनिर्विकल्प भावकोत्यागिकार विराट् भाव होत भया है, इसीप्रकार आगे तिस पुरुषने चारों वेद ज्ञानकारिकै रचे, अरु नीतिको निश्चय किया, नीति कहिये कि, यह पदार्थ ऐसे होवें,अरु एताकाल रहैं, यह रचना रची, जो जो संकल्प करत भया, सो सो देश काल पदार्थ दिशा ब्रह्मांड सब आगे होत भये, तिस पुरुषके एते नाम हैं, ईश्वर विराट् आत्मा परमेश्वर इत्यादिक जीवके नाम हैं, सो इस जीवका स्वरूप वासनारूप कछु झूठ नहीं, वासनाके शरीर ग्रहण करनै'कार वासनारूप कहा है, अरु वास्तवरूप शुद्ध है, निर्विकार अद्वैत है, कदाचित् स्वरूपते अन्य अवस्थाको नहीं प्राप्त भया, सदा ज्ञानरूप है, अद्वैत परमशुद्ध है, तिसको अपने चेतन स्वभावकार चैत्यका संयोग - हुआ है, तिसकर कहा है, जो उसका वधु वासनारूप है, तिस आदि जीवते ब्रह्मा विष्णु रुद्रूते आदि लेकर देवता दैत्य आकाश मध्यपाताल त्रिलोकी उत्पन्न हुई है, जैसे दीपकते दीपक होता हैं अरु जलते जल होता है, तैसे सब विराट्स्वरूप हैं, सो विराटू कैसा है, महाकाश जिसका उदर है, अरु समुद्र तिसका रुधिर है, अरु नदियां जिसकी नाड़ी हैं, अरु दिशा जिसके वपु हैं, अरु जिसके उदरविषे कई ब्रह्मांड सुमेरु पर्वतसहित समाए रहते हैं, अरु पवन जिसके मुण्ड हैं, अरु उञ्चास पवन जिसके प्राणवायु हैं, मांस जिसका पृथ्वी है, हस्त जिसके सुमेरु आदिक पर्वत हैं, तारे जिसकी रोमावली हैं। ऐसा विराट् है, सहस्र जिसके शीश हैं, अरु सहस्र मस्तक हैं, सहस्रही नेत्र अरु अनंत है, अनादि है, अरु चंद्रमा जिसकी कफ है, जिसते अमृत स्रवता है, भूत उपजते हैं, अरु सूर्य पित्त है, अरु सर्वको उत्पन्न करता है, सर्व मन अरु सर्व कर्म अरु सर्व शरीरका बीज आदिविराट है ॥ हे रामजी ! इस चित्तके संबंधकरिकै तुच्छहुआहै, वास्तवते परमात्मस्वरूप है, जैसेमहाकाश घटके संयोगकरिघटाकाश होताहै, तैसेविराट जो परमात्मा है,तिसने फुरणेकरि सृष्टि रची हैं, अरुतिसविषेअहंप्रत्यय करी है,इसते तुच्छ हुआ है,सो इसको मिथ्याश्रमहुआहै, जैसे स्वप्नविषे अपना मरणा देखता है, तैसे आपको दृश्य देखता है,सोलघुताभी इसको