पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४४७

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(१३२८) योगवासिष्ठ । हे रामजी! संसारका आद्य परमात्मतत्त्व है, अरु अंत भी वही हैं, जैसे स्वर्ण गालिये तौभी स्वर्ण है, जो न गालिये तो भी स्वर्ण है, तैसे जब सृष्टिका अभाव होता है, तो भी शेष आत्माही रहता है,अरु जब उपजी न थी, तब भी आत्माही था, अरुमध्य भी वही है, परंतु सम्यकुदर्शीको भासता है, अरु असम्यक्दको आत्मसत्ता नहीं भासती ।। हे रामजी ! विश्व आत्माका परिणाम नहीं, चमत्कार है, जैसे स्वर्ण लगता है, तब रेणी संज्ञा उसकी होती है; अथवा शलाका कहाता है, यद्यपि भूषण तिसविषे हुए नहीं तौ भी चमत्कार उसका ऐसाही होता है, जो भूषण उसते उपजिकारि लय हो जाता है, तैसे विश्व आत्माको चमत्कार हैं, बना कछु नहीं, ज्योंका त्यों आत्मसत्ता है, तिसका चमत्कार विश्व होकार स्थित हुआ है, जैसे सूर्यकी किरणें जलाभास हो भासती हैं ॥ हे रामजी! जब तुम ऐसे जाना कि, केवल आत्मसत्ता है, तब वासनाक्षय हो जावेगी, अरु चेष्टा स्वाभाविक होवैगी, जैसे वृक्षके पत्र पवनकरिकै हलते हैं, तैसे शरीरकी चेष्टा प्रारब्ध वेगकारकै होवैगी ॥ हे रामजी ! देखनेमात्र तुम्हारेविषे क्रिया होवैगी, अरु अंतरते मनकार शून्य भालैगी, जैसे यंत्रीकी पुतली संवेदन विना तागेकार चेष्टा करतीहै, तैसे शरीरकी चेष्टा प्रारब्धकार स्वाभाविक होवेगी, अरु तुझको अभिमान न होवैगा, जैसे कोऊ पुरुष दूधके निमित्त गुजर पास बासन ले गया तिसको दूध दोहने विषे कछुक बिलंब हैं, तब उसने कहा कि,, बासन इहाँ धरा है, जो मैं गृहते कोई कार्य शीघ्रहीकार आऊँ, जब वह गृहका कार्य करने लगा, तब उसका मन दूधकी ओर रहा कि, शीघ्रही जाऊँ, कहीं दुहुता न होवे, गृहका कार्य किया, परंतु मन उसका दूधकी ओर रहा, तैसे तुम्हारी क्रिया प्रारब्धवेगकार होवैगी, परंतु मन आत्मतत्त्वविषे रहेगा, जब अहंकारते रहित होवैगा, जबलग अहंकार फुरता है, तबलग प्रसन्न जीव है, प्रसन्न कहिए तुच्छ है, तिसको शरीरमात्रका ज्ञान होता हैं, अंतःकरणविषे जो प्रतिबिंब है, जीव तिसको नख शिखपर्यंत शरीरका ज्ञान होता है, अरु इसीविषे आत्मअभिमान होता है, अपर ज्ञान नहीं होता, ताते जीव हैं, अरु विराट् जो आगे तुझको कहा है,