पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४८१

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(१३६३) योगवासिष्ठ । हैं, तब भासता है, जब ठहरता हैं, तंब नहीं भासता, तैसे जब चित्तशक्ति फुरती है, तब विश्वरूप होकार भासती है, जब अफ़र होती है, तब केवलमात्रपद रहता है, सो निराभास है, अविनाशी अरु निर्विकल्प है, अरु सबका अपना आप है, अरु संत् असत् जड चेतन आदिक शब्द अर्थ सब उसी अधिष्ठान सत्ताविषे फुरते हैं, इतर कछु नहीं ताते उसी अपने स्वरूपविषे स्थित होहु, जो परमार्थसत्ता आत्मतत्त्वं अपने स्वभावविषे स्थित है, अहं त्वते रहित लेवल आकाशरूप सबका अधिष्ठान है, तिसीविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे शांतिस्थितियोगोपदेशी नाम शताधिकत्रिपंचाशत्तमः सर्गः ॥ १५३॥ शताधिकचतुःपंचाशत्तमः सर्गः १५५. । परमार्थयोगोपदेशवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! जिनको दुःख सुख चलाते हैं, ईद्रियके इष्टविषे सुखी होते हैं, अरु अनिष्टविषे दुःखी होते हैं, राग द्वेषके आधीन वर्त्तते हैं, तिनको ऐसे जान कि नष्ट हुए हैं, जिनका पुरुषप्रयत्न नष्ट हुआ है, सो वारंवार जन्मको पावैगे, अरु जिनको सुख दुःख नहीं चलावते, तिनको अविनाशी जान, वह जन्ममरणके फांसते मुक्त हुए हैं तिनको शास्त्रका उपदेश नहीं है । हे रामजी ! राग द्वेष तब फुरता है, जब मनविषे इच्छा होती है, अरु इच्छा तब होती है, जब संसारकी सत्यता दृढ होती है, जिसको असत्य जानता है, तिसको बुद्धि नहीं ग्रहण करती, अरु इच्छा भी नहीं होती, अरु जिसको सत्य जानता है, तिसविषे बुद्धि दौड़ती है। हे रामजी! अज्ञानीको संसार सत्य भासता है तिसकार दुःख पाता है। जब शांतपदको यत्न करै, तब दुःखते मुक्त होवै, शांतपद कैसा है, जिसविषे अहं त्वं अरु जगत् ब्रह्म यह शब्द कोऊ नहीं, केवल चिन्मात्र आकाशरूप है, तिसविषे अहं त्वं जगत्.ब्रलं शब्द कैसे होवै, यह शब्द सब विचारके निमित्त कहे हैं, वास्तवते शब्द कोऊ नहीं, अद्वैत चैत्यते रहित चिन्मात्र है, जब जानता है होती है, भासता तिसविषेबुदिदछ भी नहीं