पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४८२

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परमार्थयोगौपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरणे ६. (६३६३) सर्व शब्दका बोध किया, तब शेष शांतपद रहता है, अभावते नहीं, इसीते आत्मत्वमात्र कहा है, अरु जगत् ऊरणेकार उसीविषे भासता है, तिस जगतविषे जहाँ ज्ञप्ति जाती है, तिसका ज्ञान इसको होता है। हे रामजी ! एक अधिष्ठान ज्ञान है, अरु एक ज्ञप्तिज्ञान है, अधिष्ठानज्ञान सर्वज्ञ है, सो ईश्वरको है, अरु ज्ञप्तिज्ञान जीवको है, एक लिंगशरीरका जिसको अभिमान हैं, सो जीव है, अरु सर्व लिंगशरीरका अभिमानी ईश्वर हैं, जहां इस जीवकी ज्ञप्ति पहुँचती है, तिसको जानता है, जैसे एक शव्यापर दो पुरुष सोये हो, एकको स्वप्न आया तिसविषे मेघ गर्जते हैं, अरु दूसरा सोया है तिसको मेघका शब्द नहीं सुन पडता; काहेते जो ज्ञप्ति उसकेविषे नहीं आते, परंतु मेघ तो उसके स्वप्नमें है, जैसे सिद्ध विचरते हैं, अरु इसको दृष्ट नहीं आते, काहेते जो इसकी प्राप्ति नहीं जाती, अरु सब सृष्टि बसती है, तिसका ज्ञान ईश्वरको है, सो सृष्टि भी संकल्पमात्र है, कछु बनी नहीं, भ्रमकारकै भासती है, जैसे बादलविषे हस्ती घोड़ा मनुष्य आदिक विकार भासते हैं, सो भ्रांतिमात्र हैं, तैसे आत्माके अज्ञानकारि यह सृष्टि नानाप्रकारकी भासती है । हे रामजी । यह आश्चर्य हैं, जो आत्माविषे अहंका उत्थान होता है कि, मैं हौं, ऐसे जानता है, अरु वर्णाश्रम अपनेको मानता है, अरु विचारकरि देखिये तो अहं कछु वस्तु नहीं सिद्ध होती, अरु अहं अहं फुरती है, यह आश्चर्य है, जो भूत कहते उठा है, शुद्ध आत्मब्रह्मविषे यह कैसे हुआ है, अनहोते अहंकारने तुमको मोहित किया है, इसके त्यागनेविषे तौ यत्न कछु नहीं, इसका त्याग करहु ॥ हे रामजी ! यह - संकल्प मिथ्या उठा है, जब अहंकारका उत्थान होता है, तब जगत् होता है, जब अहंता मिट जावै, तब जगत्का भी अभाव हो जाता है, काहेते कि, बना कछु नहीं, भ्रममात्र हैं, जैसे संकल्प नगर भ्रममात्र हैं, अरु स्वप्नसृष्टि भ्रममात्र है, तैसे यह विश्व भी भ्रममात्र है, कछु बना नहीं, अरु आत्मत्वरूप है, इतर कछु नहीं, जैसे पवनके दो रूप हैं, चलता है, तो भी पवन है, ठहरता हैं, तो भी पवन है, तैसे विश्व भी आत्मस्वरूप है, जैसे पवन चलता है, तब भासता है, अरु ठहर