पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४९५

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(१३७६,) , योगवासिष्ठ । अपने मरनेको देखता है, तैसे अपने साथ शरीरको देखता है, जब चित्तशक्ति नष्ट होती है,तब शरीर कहाँ अरु मन कहाँ, यह कोऊ नहीं भासता, जैसे स्वप्नविचे भ्रमकारकै शरीरादिकभासतेहैं, तैसे यह जाग्रत् भीजान, जो मिथ्या भ्रमकारकै उदय हुए हैं,जब अपने स्वरूपकी ओर आवै तब सबही भ्रममिटि जावें ।। हे रामजी ! जैसे भ्रमकारकैआकाशविषेनीलता भासती हैं तैसे विश्व भी अनहोती भ्रमकार भासती है, आत्माविषेकछु आरंभ परिणामकारकै नहीं बना वही स्वरूप है, जैसे आकाश अरु शून्यताविषे भेदनहीं, जैसे पवन अरु स्पंदविषे भेदनहीं, तैसे आत्मा अरु जगविषे भेद नहीं, जैसे स्वप्नकी सृष्टि अनुभवरूप है, इतर कछु नहीं, तैसे जगत आत्मा अनुभवते इतर कछु नहीं ॥ हे रामजी ! चेतन आकाश परम शतरूप है, तिसविषे देह इंद्रियां भ्रमकारकै भासती हैं, अरु क्रिया काल पदार्थ सब भ्रममात्र हैं, जब आत्मस्वरूपविषे जागकर देखेगा, तब द्वैतभ्रम निवृत्त हो जावैगा, कैवल्य अद्वैत आत्माही भासैगा, दृश्यका अभाव हो जावैगा, यह पृथ्वी आदिक तत्त्व जो भासते हैं, सो अविद्यमान हैं, इनकी प्रतिमा मिथ्या उदय हुई है, जैसे स्वप्रविषे अनहोते पृथ्वी आदिक तत्त्व भासते हैं, परंतु हैं, नहीं तैसे आत्माविषे यह जगत् भासता है ॥ हे रामजी ! पृथ्वी आकाशरूप है, अरु कंध कोट भी आकाशरूप है, अरु पर्वत भी आकाशरूप हैं, सब प्रपंच आकाशरूप है, जो सर्व आकाशरूप हैं, तौ ग्रहण त्याग किसका होवे, अरु आकाशरूप दिवारकेऊपर संकल्पने मूर्तियां रची हैं, अरु रंग तहां आत्मचैतन्यता है, ताते विश्व संकल्पमात्र है, जैसा जैसा निश्चय होता है, तैसी तैसी सृष्टि भासती है, जो कछु बना होता है, तो अपरका अपर भासता , ताते बना कछु नहीं, जैसा संकल्प होता है, तैसा आगे रूप हो भासता है । हे रामजी ! सिद्ध पास एक चूर्ण होता है, तिसकार जो चाहते हैं, सो करते हैं, पर्वतको आकाश करते हैं, अरु आकाशको पर्वत करते हैं, तैसे मैं तुझको चूर्ण कहता हौं, जब चित्तरूपी सिद्ध संकल्परूपी चूर्णकार फुरता है, तब आत्मरूपी आकाशविषे पर्वत हो भासते हैं, अरु जब चित्तरूपी