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संतमाहात्म्यवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

पक्षीकी जात महातुच्छ है, उजाड वनविषे उनका निवास है, वहांही इनका दाना पानी है, यह निरालंबहै, इनकी जीविका दैवने ऐसे बनाई है॥ हे भगवन्! मैं तो सदा सुखीहौं, अपने आपविषेस्थित हौं, आत्मसंतोषकरि मैं तृप्त हौं, कदाचित् इस जगत‍्के क्षोभकिर मैं नहीं खेदको प्राप्त होता. स्वभावमात्रविषे संतुष्ट हौं, कष्ट चेष्टाते मुक्त हौं॥ हे ब्राह्मण! अब हम केवल कालको व्यतीत करतेहैं, अपरजगतके इष्ट अनिष्ट हमको चलाय नहीं सकते. न मरनेकी हमको इच्छाहै, नजीनेकी इच्छा है, काहेते कि जीना मरनाशरीरकी अवस्था है आत्माकी अवस्था नहीं, हमको जीवनेविषे राग नहीं मरनेविषे दोष नहीं, जैसी अवस्था आनिप्राप्त होवै, तिसीविषे संतुष्ट है॥ हे मुनीश्वर! ऐसे ऐसे देखेहैं, सोबहुरि भस्म हो गयेहैं तिनकी अवस्थाको देखिकरि हमारे मनकी चपलता जाती रहीहै, अरु हम इस कल्पवृक्षपर बैठेहैं, कैसा कल्पवृक्षहै, रत्नकी वल्ली जिसको लगी है, तिसपर बैठिकरि मैं प्राण अपानकीगतिकोदेखता हौं, इनकी कलाकी जो सूक्ष्म गति है, तिसका मैं ज्ञाता हौं अरु दिनरात्रिका मुझको ज्ञान कछु नहीं, सत् बुद्धिकरिकै मैं कालकोजानता हौं. अरु सार असारको भले प्रकार जानता हौं॥ हे मुनीश्वर!जेता कछु विस्तार भासता है, सो सब झूठे हैं, सत् कछु नहीं, इसी कारणते हमको किसी दृश्य पदार्थकी इच्छा नहीं, परम उपशमपदविषे स्थित हौं, सब जगत् भी हमको शांतरूप है, जो कोऊ इस जगज्जालको आश्रय करता है, सो सुखी नहीं होता, यह जगत् सब चंचलरूप है, स्थिर कदाचित् नहीं होता. इसकी अवस्थाविषे हम पत्थरवत् अचल हैं, न किसीका हमको राग फुरता है, न दोष फुरता है, न कीसीकी इच्छा करै, सब जगत‍् हमको तुच्छ भासता है,यह सब भूतरूपी नदियां कालरूपी समुद्रविषे जाय पडती हैं, अरु हम कांठेपर खडे हैं, कदाचित् नहीं डूबते, अपर जेते कछु जीवभूत हैं, सो पडे डूबते हैं, कई एक तुम सारखे निकसे हुएहैं, अरु तुम्हारी कृपा कारकै हम भी निर्विकारपदको प्राप्त हुए हैं॥ हे मुनीश्वर! मैं निर्विकार हौं, सब जगतके क्षोभते रहित हौं, आत्मपदको पायकरि उपशमरूप हौं॥ हे मुनीश्वर! तुम्हारे दर्शन करिकै मैं अब पूर्ण आनंदको प्राप्त हुआ हौं,