पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५६७

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(१४४८) . योगवासिष्ठ । नाईं चेष्टा करै, अरु कहूँ ऐसी सृष्टि देखी जो उनको रात्रि अरु दिनका ज्ञान कछु नहीं, अरु कालका ज्ञान भी नहीं, धर्म अधर्मका ज्ञान भी नहीं, जैसी अपनी इच्छा होवै तैसे करते हैं, कहूं ऐसी सृष्टि देखी जो पुण्य करनहारे नरकको प्राप्त होते हैं, अरु पापकत्ता स्वर्गको जावें. हूँ। ऐसी सृष्टि देखी कि बालूते तेल निकसता है, अरु विषपान कियेते अमर होते हैं, अरु अमृतके पान कियेते मर जावें ।। हे रामजी ! जैसे जिसका निश्चय होता है, तैसाही आगे भासता है, यह जगत् संकल्प मात्र है, जैसी भावना होती है तैसा आगे होकरभासता है, कहूँ पत्थरविषे कमल उपजते दृष्ट आये हैं, अरु कछु वृक्षोंमें लगे रत्न हीरे दृष्ट आये हैं, अरु बेडे प्रकाश संयुक्त आकाशविषे वृक्षके वन दृष्ट आये हैं। कहूं ऐसी सृष्टि देखी कि मेघके बादलही तिनके वस्त्र हैं, वस्त्रों की नई बादलोंको पकार लेवें, कहू शीशके भार लेते दृष्ट आवै, अरु सब चेष्टा भी करें अंधे काणे दोरे इत्यादिक नानाप्रकारकी सृष्टि देखी हैं । हे रामजी! जब मैं स्वरूपकी ओर देखौं,तब सब सृष्टि शून्यरूप दृष्ट अवै , अरु जब संकल्पकीओर देखौं तब नानाप्रकारका जगत् भासे, कहूँ ऐसेही दृष्ट आवै,जो चंद्रमा सूर्यको जानतेही नहीं, कहूँ एक पृथ्वीको सृष्टिदेखी पृथ्वीविषे अरु अग्निकी दृष्टि देखी अशिविषे, जलकी सृष्टि जलविषे देखी, कहूं पांच भूतकी सृष्टि देखी, जैसे यह विद्यमान है, कहूँ काष्ठकी पुतलीवत् सृष्टि चेष्टा करती देखी, जैसे यह विद्यमान है, भोजन करती है,ककहूँप्राणहु विना यंत्रीकी पुतलियांवत् चेष्टा करते हैं ॥ है रामजी ! जब ऐसे सृष्टिको देखता देखता महा आकाशविषे अनतयोजनपर्यंत चला गया,परंतु एक आकाशही दृष्ट आवै,अंपर तत्त्व • कोऊ दृष्ट न आवै, बहुरि ऐसी सृष्टि देखीजो खाना पीना सब चेष्टाकरे परंतु दृष्ट न आवै, वैतालकी नई जैसे वैताल सब चेष्टा करते हैं, अरु दृष्ट न आवै, तैसे वह इष्ट न आवै अरु कहूँ ऐसी सृष्टि देखी कि मैंअरु तू कल्पना भी नहीं, केवल निश्चित पद रहै, अरु कहूँ ऐसी सृष्टि देखी जो उनका मनही नहीं, कहूं निरहंकार सृष्टि देखी, कहूँ ऐसी सृष्टि देखी, जो सब विषे आत्मभावना करते हैं, कहूं सब अपना आपही जानै