पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/५८२

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विद्याधरीवेगवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१४६३) शताधिकचतुरशीतितमः सर्गः १८४. विद्याधरीवेगवर्णनम् । विमाधवाच ॥ ३ मनीश्वर! इसप्रकार में तप करतीफिरती.अब मुछेको भी भत्ताके वियोगकोर वैराग्य उपजा है, भत्तका वैराग्यरूपी गड़ा मेरी तृष्णारूपी कमलिनी ऊपर पड़ा है, तिसकरि जलि गई हौं, तातै जगत् मुझको विरस भासता है । हे मुनीश्वर ! यह जगत् असार है, इसविषे स्थिर वस्तु कोऊ नहीं, इस कारणते मुझको भी वैराग्य उपजा है, अरु मेरा भक्त जो स्वभूत है, सो संसारते विरक्त होकर एकांत जाय बैठा है, वेदको विचारता रहता है, परंतु आत्मपदको नहीं प्राप्त भया, मनके स्थिर करनेका उपाय करता है, परंतु अवलग मन स्थिर नहीं भया, सर्व ईषणाते रहित होकर शास्त्रको विचारता रहता है, अरु आत्माका साक्षात्कार नहीं हुआ,अरु मुझको भी वैराग्य उपजा है, अब दोनों वैराग्यकार संपन्न हुए हैं, अरु परमपद पानेको सुझको इच्छा भई है, अरु शरीर हमको विरस हो गया है, जैसे शरत्कालकी वल्ली विरस होती है, इस कारणते मैं योगकी धारणा करने लगी हैं, यह शक्ति मुझको उत्पन्न भई हैं, आकाशमार्गको आऊ जाऊँ योगधारणाकार आकाशकेऊपर उड़नेकी शक्ति हुई है, बहुरि सिद्धमार्गकी धारणाकार सिद्धोंके मार्गभी आॐ जाॐ परंतु अर्थ कछु सिद्ध न हुआ, पाने योग्य जो आत्मपद है, सो प्राप्त न हुआ, जिसके पायेते दुःख कोऊ न रहैं, अब मुझको निर्वाणकी इच्छा भई है, अरु सिद्धोंके गण भी मैं देखे हैं, देवता अरु विद्याधर देखे हैं, ज्ञानीके स्थान भी देखे हैं, इत्यादिक बहुत स्थान देते हैं, परंतु जहाँ जाऊं तहां तुम्हारी स्तुति करें, वसिष्ठमुनि ऐसे हैं, जो वचनद्वारा बलकार अज्ञानको निवृत्त करते हैं। जैसे बड़ा मेघ वर्षता है, परंतु जब वायु चलताहै, तब मेचको दूर करता है, तैसे तुम्हारे वचन अज्ञानको दूर करते हैं, जब ऐसे मैं तुम्हारी स्तुति सुनी, तब मैं इस सृष्टिविषे आनेका अभ्यास किया, तब धारणाके