पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६०५

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(१४८६) योगवासिष्ठ । पवन है, तैसे जब चित्त फुरता है, तब भी ब्रह्मसत्ता ज्योंकी त्यों है, अरु जब चित्त नहीं फुरता तब भीज्योंकी त्यों है, परंतु जब स्पंद फुरता है, तब विरारूप होकार स्थित होता है, जब चित्त अफर होता है, तब अद्वैतसत्ता भासती है, अरु सदा अद्वैतही विराट् स्वरूप कैसा है ॥ हे रामजी ! इस दृष्टिकार उसके शिर पाद नहीं भासते हैं, अरु जेते कछु ब्रह्मांडकी पृथ्वी हैं सोतिसका माँस है, अरु सब समुद्र तिसका रुधिर हैं, नदी तिसकी नाडी हैं, अरु देशों दिशा तिसके वक्षस्थल हैं, अरु तारागण रोमावली हैं, सुमेरु आदिक तिसकी अंगुलियां हैं, अरु सूर्यादिक तेज तिसके पित्त अरु चंद्रमा कफ हैं, अरु पवन तिसका प्राणवायु है। संपूर्ण जगज्जाल उसका शरीर है, ब्रह्मा तिसका हृदय हैं, सो आकाशरूप है, संकल्पकारिकै नानारूप हो थासता है, स्वरूपते कछु बना नहीं, आकाश आदिक जगत् सब चिदाकाशरूप हैं, अरु अपने आपहीविषे स्थित हैं ॥इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विराडात्मवर्णनं नाम शताधिकनवतितमः सर्गः ॥ १९० ॥ शताधिकैकनवतितमः सर्गः १९१. विराशरीरवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच॥ है रामजी! आदिजो विराट है, सो ब्रह्म है, तिसका तौ आदि अंत कछु नहीं, अरु यह जगत् उसका छोटा क्षु है, तिस चेतने वटुका किंचन ब्रह्मरूप हुआ है, तिसके अंगके विस्तारका क्रम सुन्, तिस ब्रह्माने संकल्पकार एक अंड रचा हैं, कैसा ब्रह्मा है, जिसका संकपही वपु हैं, तिस अंडको फोडता भयो, तब अंडेका जो ऊर्ध्व भाग था, सो ऊध्वको गया, अरु जो अधोभाग था, सो अधको गया, सो पाताल ब्रह्मका चरण हुआ, अरु ऊध्र्व शिर हुआ, अरु मध्य जो अवकाश है, सो ब्रह्माका उदर हुआ, दशों दिशा वक्षस्थल हुए, अरु हाथ सुमेरुआदिक पर्वत हुए, अरु मांस पृथ्वी हुई, अरु समुद्र त्रिी हुए, सब नदियां तिसकी नाडी भई, तिसविषे जल है सो रुधिर हुआ. प्राण अपान