पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

विराशरीरवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१४८७)। वायु पवन हुआ, हिमालय पर्वत तिसका कफ है, सर्व तेज उसके पित्त चंद्रमा सूर्य तिसके नेत्र हैं, अरु तरागण स्थूल लार हैं, अरु लार प्राणके - बलकार निकसती है, जैसे ताराचक्रको पवन फेरता हैं, अरु ऊर्ध्व लोक तिसकी शिखा है, मनुष्य पशु पक्षी उसके रोम हैं, अरु सब भूतकी चेष्टा उसका व्यवहार है, पर्वत उसके अस्थि हैं, ब्रह्मलोक इसका सुख है, सब जगत् विराट्का वपुहै ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् । यह जो तुमने संकल्प रूप ब्रह्मा कहा अरु जगत् तिसका वयु कहा सो मैं मानता हौं, परंतु यह जगत् तौ तिसका शरीर हुआ, बहार ब्रह्मलोकविषे ब्रह्मा कैसे बैठता है, अपने शरीरहीविषे भिन्न होकार कैसे स्थित होता है । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इसविषे क्या अश्चर्य है, जो तू ध्यान लगाइकार बैठे, अरु अपनी मूर्ति अपने अंतर रचिकर स्थित होवै तौ भी होता है,अरु जैसे पुरुषको स्वप्न आता है, तिसविषे जगत् भासता है,सो सब अपना स्वरूप है, परंतु अपनी मूर्ति धारिकार अपको देखत भया, तैसे ब्रह्माका एक शरीर ब्रह्मलोकविषे भी होता है, ब्रह्मा अरु जीवविषे एता भेद हैं। कि, जीव भी अपनी स्वप्नसृष्टिका विराट् हैं परंतु उसको प्रमाकरिकै भासती नहीं, अरु ब्रह्मा सदा अप्रमादी है, तिसको सब जगत् अपना शरीर भासता है ॥ हेरामजी ! देवता सिद्ध ऋषीश्वर विद्याधर सो विराटू पुरुषकी श्रीवाविषे स्थित हैं, अरु भूत प्रेत पिशाच सब वैराहू पुरुषके मलते उपजे, कीटकी नाई उदरविषे स्थित हैं,स्थावर जंगम जगत् सब संकल्प करि रचाहुआविराटूविषेस्थित है,सबतिसीके अंगहैं, जोजगत् हैतौविराट् भी है अरु जगत् नहीं तौ विराट् भी नहीं,जगत् कहिये,ब्रह्मकहिये, विराट् कहिये तीनों पर्याय हैं, ताते संपूर्ण जगत विराट्का वपु है, निराकार क्या अरु आकार क्या, अंतर बाहर सब विराट्का वधु है, जैसे अंतर बाहिर आकशविषे भेद नहीं, तैसे विराट् आत्माविषे भेद नहीं, जैसे पवनके चलने ठहरनेविषे भेद नहीं, तैसे विराअरु आत्माविषे भेद नहीं । जैसे चलना ठहरना दोनों रूप पवनके हैं, तैसे साकार निराकार सब विराटूका शरीर है । हे रामजी ! इसप्रकार जगत् हुआ है, सो कछु उपजा नहीं, संकल्पकारकै उपजेकी नाई भासता है, जैसे सूर्य की किर