पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६१९

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( १५०० ) योगवासिष्ठ । देवीके आश्रय पडी होती है, जैसे आदर्शविषे प्रतिबिंब होता है, तैसे देवीविषे क्रिया होती है ॥इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे देवीरुद्रोपाख्यानवर्णनं नाम शताधिकषण्णवतितमः सर्गः ॥ १९६ ॥ शताधिकसप्तनवतितमः सर्गः १९७० अंतरोपाख्यानवर्णनम् राम उवाच ।। हे भगवन् यह जो तुमने रुद्र अरु कालिकाका वर्णन कियाहै, सो कौन थे महाप्रलयविषे तौ रहताकछु नहीं,यह कालीकौन थी ? तिसके शरीरविषे तुमने सृष्टि कैसे देखी, महाप्रलय होकार तिसके शरीरविषे सृष्टिने कैसेप्रवेश किया, अरु उसके हाथविषे बहुरियादिक शस्त्र क्या थे? कहाँते आईथी अरु कहां गई, अरु तिसका आकार क्याथा? ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । न कोङ रुद्र है, नकाली है, न कोऊपुरुष न कोऊ स्त्री है, न कोऊ नपुंसक है, न पुरुष मिलिकार कछु हुआ है,न ब्रह्मांड है, न पिंड है, केवलचिदाकाश है,संकल्पते उपजे आकारभासते हैं, जैसे स्वप्नविषेआकार भासते हैं, तैसे वह आकार भी भासे,वास्तवते केवल चिदाकाशज्योंका त्यों है ।हेरामजी ! आत्मपद कैसा अनंतचेतन है, सत्य प्रकाशरूप है अविनाशी है, अपने आप स्वभावविषे स्थित है, अरु रुद्रदेवका आकार ज्यों भासा श्रा, सो चेतन आत्माही ऐसे होकार भासा था, कोङ अपर आकार न था, जैसे स्वर्णहीभूषणहोकार भासता है, तैसे परमदेव चिदाकाश ऐसे होकर भासा था, काहेते जो चेतनस्वरूप है, जैसे मधुरता गन्नेका स्वरूप है, तैसे आत्माको चेतन स्वरूप है । हे रामजी ! चेतनसत्ता अपने स्वरूपको नहीं त्यागती, अरु आकार होकार भासती है, सदा अपने आपविषे स्थित है, जैसे गन्ने के रसविषे मधुरता न होवे,तौ उसको रस नहीं कहते, तैसेआत्मसचाविषे चेतनता न होवे तौ चेतन कोऊ न कहै,जो आत्मा चेतनताको त्यागै तौ परिणामी होवे,तब चेतन कहिये, परंतु सदा अपने आप स्वभावविषे स्थित है, किसी अपर अवस्थाको नहीं प्राप्त भया, इसीते कहा