पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/६२०

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अंतरोपाख्यानवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१९०१) है, जो कछु भासता है, सो आत्माका किंचन है । हे रामजी ! जैसे गन्नेके रसविषे मधुरता होती है; तैसे आत्माविषे चेतनता है, चेतनमात्रविषे एक चैत्यताका लक्षण रहता है, चेतनतारूप इसकार यह जगत् अभावरूप लखाता है, अरु जो शुद्ध चिन्मात्रविषे चित्तका उत्थान नहीं होता, तौ जगद्भाव नहीं लखाता, अरु आत्मसत्ता दोनों अवस्थाविषे सदाज्योंकी त्यों है, जैसे वायु स्पंद होता है, तब स्पर्शरूप उसका लक्षण भासता है, अरु जब निस्पंद होता है, तब उसविषेशन्द को नहीं प्रवेश करसकता, अरु वायु दोनों अवस्थाविषे तुल्य है, तैसे शुद्ध चेतनविषे किसी शब्दका प्रवेश नहीं, चेतनता 'भावविषे है, अरु आत्मसत्ता सदा तुल्य है, ताते वास्तव यह जगतही नहीं॥ हे रामजी! आदि, मध्य, अंत, जगत्, आकाश, कल्प, महाकल्प, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, जन्म, मरण, सत्य, असत्य, प्रकाश, अंधकार, पंडित, मूर्ख, ज्ञानी, अज्ञानी, नाम, कर्म, रूप, अवलोकन, मनस्कार, विद्या, अविद्या, दुःख, बंध, मोक्ष, जड, चेतन, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, आना, जाना, जगत्, अजगत्, है, नहीं, बढना, घटना, मैं,तु,वेद,शास्त्र, पुराण, मंत्र, अकार, उकार, मकार, जय नाम आदिक स्थावर जंगम जगत् क्रिया सब ब्रह्मस्वरूप, दूसरी वस्तु कछु नहीं जैसे समुद्रविषे तरंग बुद्बुदे आवर्त सब जलरूप हैं, तैसे सब ब्रह्मस्वरूप है, ब्रह्मते इतर कछु वस्तु नहीं, जैसे स्वप्रविषे पर्वत भासते हैं, सो अनुभवते इतर कछु नहीं, तैसे यह जगत् ब्रह्मते इतर कछु नहीं, जैसे सूर्यको किरणें जलरूप होकार भासती हैं, तैसे आत्मसत्ता जगतरूप होकर भासती है । हे रामजी ! ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इंद्र, वरुण, कुबेर,यम,चंद्रमा, सूर्य, अग्नि,जल, पृथ्वी, वायु,आकाश आदिक जेते कछु शब्द हैं सो सब ब्रह्मसत्ताही ऐसे होकार स्थित भई है, परंतु सदा अपने आपविषे ज्योंकी त्यों, है, कदाचित परिणामको नहीं प्राप्त भई, सो सत्तासर्वकी आत्मा है, जैसे समुद्र अपने तरंगभावको त्यागै, तब अपने सौम्यभावविष स्थित होवे, तैसे ब्रह्मसत्ता कुरणेको त्यागै, तब अपने स्वभावविषे स्थित होवे, सो अनामय है, अर्थ यह कि, दुःखते रहित है, परम शांतिरूप है, अनंत हैं, निर्विकार है, जब इसप्रकार बोध